Fakirana Andaj
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Fakirana Andaj , livre ebook

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Description

In Shirdi Saibaba: Life-philosophy and Devotion Sai Baba's life philosophy and devotion have been discussed in simple words. O. P. Jha is a well-known name in English and Hindi story writing and fiction. He has translated (into Hindi and English) well-known works of Dr. APJ Abdul Kalam, JRD Tata, General (Retd.) V. P. Malik, Shri Jagmohan and other renowned persons. Shri Jha has been engaged in the editing of spiritual magazines. His other works on Sai Baba are-"Sai Baba Aur Unki Shirdi"(Saibaba and His Shirdi), "Sai Baba Ke Prasiddh Bhakt "(Famous Devotees of Saibaba), "Fakirana Andaz" (A Hindi novel on Shirdi Saibaba) etc.He is the author of "Management Guru Lord Krishna". Presently, he is working for Doordarshan Kendra, New Delhi.

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Informations

Publié par
Date de parution 19 juin 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789352965748
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0106€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

शिर्डी साईंबाबा के जीवन पर आधारित उपन्यास
फ़क़ीराना अंदाज़

 
eISBN: 978-93-5296-574-8
© लेखकाधीन
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि .
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली-110020
फोन: 011-40712200
ई-मेल: ebooks@dpb.in
वेबसाइट: www.diamondbook.in
संस्करण: 2019
फ़क़ीराना अंदाज़
लेखक : ओ. पी. झा
आमुख आखर
आखर शब्द में एक अनुपम आकर्षण है। संत कबीर ने आखर शब्द का प्रयोग किया। गोस्वामी तुलसीदास ने इस शब्द को एक नया आयाम दिया। संत कबीर ने जहां निर्गुण भक्ति की धारा में समाज को आकंठ अवगाहन कराया, वहीं महाकवि तुलसी ने अपने श्रीरामचरितमानस में ‘सगुनहिं निरगुनहिं नहि कछु भेदा’ की घोषणा करके भारत की सगुण और निर्गुण‒दोनों धाराओं को आत्मसात् कर लिया। तुलसी के समय में भारत साम्प्रदायिक और मजहबी भेदभाव से आक्रांत था। हिंदू समाज को छुआछूत और जातिभेद की सुरसा निगलते जा रही थी। कुरीतियों को मिटाए बिना समन्वय संभव नहीं। जहां कबीर ने कुरीतियों को मिटाने का प्रयास किया, वहीं तुलसी ने समन्वय का कार्य किया। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। मान्यताओं और दर्शन के आधार पर समाज में भेदभाव उत्पन्न कराना विमर्शशील भारतीय परंपरा के प्रतिकूल है।
शिर्डी साईंबाबा से एक बार पूछा गया-‘आपका धर्म क्या है?’ तो उन्होंने कहा -‘कबीर का धर्म’। वास्तव में, कबीर का धर्म क्या था? न तो वे हिंदू थे और न ही मुसलमान। लेकिन वे इन दोनों से अलग भी नहीं थे। कबीर ने राम नाम का गुणगान किया। उनका राम निराकार था। यहां वे हिंदू निराकार मत के निकट थे। लेकिन वे मूर्तिपूजा के विरोधी, सगुण उपासना के विरोधी थे। यहां वे इस्लाम के नजदीक थे। यहां पर साईंबाबा कबीर से थोड़ा अलग हो जाते हैं। वे निराकार मत का भी समर्थन करते हैं और साकार मत का भी। जिसकी जैसी आस्था हो, वह उस पर कायम रहे। साईं ऐसा ही चाहते थे। इस अर्थ में वे तुलसी के निकट थे। लेकिन उन्होंने अपना धर्म तुलसी का धर्म क्यों नहीं बताया?
कबीर के उस दोहे पर ग़ौर करने से साईं के कथन का मर्म ज्ञात होता है जिसमें उन्होंने पंडित की परिभाषा ही बदल दी। कबीर ने कहा‒
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
यहां कबीर ने कह दिया कि प्रेम तत्व को जिसने समझ लिया वही वास्तव में ज्ञानी है। साईंबाबा ने कबीर की तरह ही कहीं पर अक्षर ज्ञान की औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी। उनका प्रेम चराचर जगत में फैला हुआ था। उन्होंने अपने चाहने वालों को साक्षात्कार कराया कि प्रत्येक प्राणी में वही परमात्मा है जो साईं में है। सबसे प्रेम करो, मजहबी और कौमी सीमाओं से ऊपर उठकर सबको गले लगा लो।
साईं ने अपने निवास के लिए महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के एक छोटे-से गाँव शिर्डी को चुना। वे चाहते तो किसी शहर में भी रह सकते थे, अपने चाहने वाले किसी सेठ के यहां भी निवास कर सकते थे। लेकिन उन्होंने शिर्डी को ही अपना निवास स्थान चुना। उस गाँव में वे सभी विशेषताएं और खामियां थीं जो उन्नीसवीं सदी के भारत के किसी भी गाँव में हुआ करती थीं। जीवन में सादगी, बड़े-बुजुर्ग के प्रति सम्मान का भाव, गरीबी, महामारी आदि तत्कालीन गाँवों में अनायास ही दिखती थीं। वहां रह कर उन्होंने अछूत और ब्राह्मण को एक साथ एक पंक्ति में भोजन कराया। कुष्ठ रोगी भागोजी शिंदे को अपना अक्षय स्नेह दिया। एक लोहार के बच्चे को बचाने के लिए अपने हाथ को जलती हुई अंगीठी में डाल दिया। नित्य सुबह से शाम तक दक्षिणा में प्राप्त होने वाले चाँदी के हजारों सिक्कों को शाम होते-होते जरूरतमंदों के बीच में बाँटना साईं की दिनचर्या का हिस्सा था। सुबह में साईं का जैसा फ़क़ीराना अंदाज़ होता था, शाम में वैसे ही फ़क़ीराना अंदाज़ में वे अपने चाहने वालों को दिखते थे। शरीर पर एक कफनी, माथे पर कपड़े लपेटे और कमर में लूंगी पहने साईं जिस मस्जिद में रहते थे उन्हें वे द्वारिकामाई कहते थे। उस मस्जिद में जहां हिंदू लोग भजन-आरती करते थे, वहीं मुसलमान नमाज़ अदा करते थे और कुरान शरीफ़ का पाठ करते थे। साईं दूसरे को हजारों देकर मालामाल कर देते थे लेकिन स्वयं पाँच घरों से मिक्षाटन करके लाते थे और उसमें से एक आधा निवाला ले लेते थे। यह फ़क़ीर इतने से ही तृप्त हो जाता था। शेष भोज्य पदार्थ को वे मिट्टी के पात्र जिसे कोलंबा कहते थे उसमें डाल देते थे। उसी पात्र में से साईं के चाहने वाले सहित पशु-पक्षी भी लेकर खाते थे।
इस साईं के विषय में बहुत कम लिखा गया और बहुत कम दिखाया गया। ग्रंथ लिखे गए, फिल्म दिखाए गए, धारावाहिकों का निर्माण हुआ जिनमें चमत्कारी साईं, भगवान साईं और सद्गुरु साईं तो बहुत दिखे लेकिन दुनिया उस साईं को उतना नहीं देख सकी जो सभी युगों के लिए मनुष्यता का आदर्श हैं। जिसे फ़क़ीर साईं, संत साईं कहते हैं। ऐसा नहीं कि इस साईं के जीवन में द्वंद्व नहीं। लेकिन उनका द्वंद्व अपना नहीं, उनका दुख अपना नहीं। समाज की समस्याएं उनके जीवन के द्वंद्व बन गए। समाज के रंग अध्यात्म के रंग से मिलने पर द्वंद्व उत्पन्न हुआ। उनके चाहने वालों के सुख-दुख और हठ जब उनके व्यापक दृष्टिकोण से टकराए तो द्वंद्व उत्पन्न हुआ। इन द्वंद्वों का सामना साईं ने सहज भाव से करने का प्रयास किया। इस प्रयास में कभी क्रोध भी उत्पन्न हुआ, कभी शोक भी हुआ। लेकिन सारे द्वंद्व उनके व्यापक दृष्टिकोण में समाहित हो गए जैसे नदियों का उफान सागर में शांत हो जाता है। यहीं पर व्यष्टि समष्टि से मिल जाती है।
उनके फ़क़ीराना अंदाज़ से पत्थर दिल इंसान में भी कोमलता का संचार होने लगता था। उस साईं के कुछ पक्षों को उपन्यास के कलेवर में उतारने का प्रयास किया गया है। यद्यपि साईं के विराट व्यक्तित्व को एक जगह समेटना आसान नहीं। उसमें भी उस व्यक्ति को जो समकालीन इतिहास (कन्टेम्पोरेरी हिस्ट्री) की सीमा को छूता हो। साईं को शिर्डी में पहली बार सन् 1854 में देखा गया। उस समय वे एक किशोर के समान दिखते थे। वे सन् 1857 में शिर्डी से चले गए और फिर 1858 में शिर्डी लौटे। वे उस समय से अपनी महासमाधि पर्यन्त यानी 1918 तक शिर्डी में रहे। विधा के अनुरूप साईं की कथा को जितना ट्रीटमेंट देना उचित लगा, उतना दिया गया। जीवनी और उपन्यास के बीच जो विधागत अंतर है उसे कायम रखा गया। जीवनी में कल्पनाशीलता की संभावना नहीं। ऐतिहासिक उपन्यास में तथ्य को यदि गुणी शिल्पकार की कल्पनाशीलता का सान्निध्य मिलता है तो उसमें ऐतिहासिक व्यक्तित्व के साथ युगीन परिवेश अपने जीवंत रूप में व्यक्त होता है। फिर कथा का ताना-बाना युग विशेष तक सीमित नहीं रह जाता उसमें मानव समाज के अतीत और भविष्य एक साथ खेलने लगते हैं। ये सभी बातें सहज रूप से लेखक के मन में लेखन के दौरान समायी हुई थीं। मैं अपने इस प्रयास में इतिहास को ट्रीटमेंट देते समय कल्पनाशीलता के स्वस्थ उपयोग करने के लोभ का संवरण नहीं कर पाया। यह कल्पनाशीलता औपन्यासिक कथावस्तु को सुगढ़ बनाने में सहयोगी रही है। यही कल्पनाशीलता तो एक कथा लेखक की चिरसंगिनी होती है। किसी व्यक्ति की जीवनी की पुनरावृत्ति उपन्यास नहीं हो सकता। ऐतिहासिक व्यक्तित्व से संबंधित उपन्यास में श्रुत अथवा ज्ञात कथा को ऐसा ट्रीटमेंट देने का प्रयास किया जाता है जिससे इतिहास नए आवरण और नई आत्मा के साथ प्रकट हो। निस्संदेह, इस प्रकार ऐतिहासिक उपन्यास के माध्यम से ऐतिहासिक व्यक्तित्व का एक पुनर्जन्म होता है। अपने प्रयास में मुझे इस भाव की अनुभूति हुई। प्रयास ईमानदारी से किया गया। फिर भी साहित्य में हमेशा और अधिक की संभावना बनी रहती है।
जिस ढाई आखर से कबीर ने पंडित की परिभाषा बदल दी। वही ढाई आखर दो आखर नाम के ‘साईं’ के रोम-रोम में बसा था। लेकिन उसकी अभिव्यक्ति साईं ने सहज रूप में की, जिसे लोगों ने फ़क़ीराना अंदाज़ कहा। उनके प्रेम में शोर नहीं। जिस प्रेम में कोलाहल हो, शोर हो वह प्रेम नहीं बल्कि प्रेम का स्वांग होता है। और फिर जो चराचर जगत से प्रेम करता हो, जिसका प्रेम असीम हो वह किससे कहेगा कि वह प्रेम करता है? इसे अनुभव किया जा सकता है। जो भी साईंबाबा के सान्निध्य में आए उन सभी ने इस अनिवर्चनीय प्रेम का रसास्वादन किया। इस फ़क़ीर ने लाखों प्यासी आत्माओं को तृप्त कर दिया। लाखों की मैली चदरिया साफ हो गई। उस चदरिया पर संकीर्णता का एक भी छींटा ढूँढ़ने से भी नहीं मिलता।
ऐसा नहीं था कि इस साईं के जीवन में दुख के क्षण नहीं आए। ऐसे क्षण में ही तो साईं के चाहने वालों को आभास होने लगता था कि बाबा मानवीय संवेदना से प्रभावित होने की लीला कर रहे हैं। लेकिन साईं सचमुच दूसरे के दुख से प्रभावित होते थे और उनके निदान का उपाय करते थे। कोई अवतार भी जब किसी काया को ग्रहण करता है तो उस काया के सुख-दुख को उसे भोगना पड़ता है। साईं स्वयं को सदा मनुष्य ही मानते रहे, भले ही उनके चाहने वाले उन्हें भगवान मानें। भक्त की अपनी भावना होती है। बाबा ने उन्हें समझाने का हर संभव प्रयास किया कि वह भी एक आम इंसान की तरह हैं। लेकिन उनके वैशिष्ट्य पर मुग्ध जन समुदाय उन्हें भगवान से कम कुछ भी मानने के लिए तैयार ही नहीं था और आज भी तैयार नहीं है। मान्यता जो भी हो, साईं में किसी प्रकार का बनावटीपन नहीं था। साईं जैसे अंदर थे, वैसे ही बाहर। इसलिए साईं सत्य के पर्याय बन गए। साईं के सान्निध्य में सत्य, प्रेम और समर्पण समानार्थक शब्द बन गए। उनकी’ सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ से परिपूर्ण गतिविधि ही उनका फ़क़ीराना अंदाज़ था। मैंने उसी फ़क़ीराना अंदाज़ को देखने का प्रयास किया है। साईं के रोम-रोम में बसे उस ढाई आखर को इस उपन्यास के माध्यम से देखने का प्रयास किया है। यह प्रयास कैसा बन पड़ा, इसका निर्णय तो प्रबुद्ध आलोचक और सुधी पाठक ही कर सकेंगे। अब पुस्तक आपके हाथ में है।
‒ओ. पी. झा
संपर्क : ‘साईकृपा’, ए-2/223, फेज-5, आयानगर, दिल्ली-47 दूरभाष : 9868030682/9560023885 ई-मेल : opjha189@yahoo.com
सोपान-1
आश्विन माह! शरद ऋतु की आहट सुनाई देने लगी थी। अब धूप में पहले जैसी गरमी नहीं रही। आसमान साफ हो गया था। कभी-कभी उसमें उड़ान भरते पंछी दिख जाते थे। वे इस तरह से उड़ते थे जैसे वे कभी भी अपने रैन बसेरे में लौटकर नहीं आएंगे।
परमानंद और सदानंद कोपरगाँव स्टेशन पर रेलगाड़ी से उतरने के बाद सीधे शिर्डी की ओर निकल पड़े। कोपरगाँव से शिर्डी की दूरी लगभग आठ मील। परमानंद की उम्र करीब साठ साल लेकिन सदानंद की उम्र तीस के करीब। उम्र में अंतर होते हुए भी वे दोस्त प्रतीत होते थे। उनका वेश यायावर साधु का था। दोनों के पास एक-एक झोले और एक-एक सारंगी। परमानंद साल में एक बार शिर्डी अवश्य आते थे। उनको शिर्डी और वहां के फ़क़ीर बाबा के विषय में बहुत-कुछ मालूम था। लेकिन सदानंद के मन में फ़क़ीर बाबा को जानने की उत्सुकता थी। वह अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पा रहा था। वह कुछ पूछता इससे पहले उसकी नज़र साथ चल रहे परमानंद पर पड़ी। उसने देखा कि परमानंद उदास हैं। उसे कुछ पूछने का साहस नहीं हुआ। कुछ देर तक दोनों यूँ ही मौन चलते रहे। परमानंद स्वयं भी नहीं जान पा रहे थे कि वह क्यों उदास हैं। कभी-कभी अपनी उदासी का ज्ञान स्वयं इंसान को नहीं होता है। सारंगी यायावर साधुओं के मन बहलाने का साधन हुआ करती है।
परमानंद ने सारंगी बजाना शुरू किया। सदानंद ने भी उसका साथ दिया। दोनों की सारंगी बजने लगी।
वे दोनों सारंगी बजाते जा रहे थे और बीच-बीच में कुछ गुनगुनाते जा रहे थे। कुछ देर बजाने के बाद परमानंद ने कहा-‘साधो, आज न जाने मेरे मन में जायसी की वे पंक्तियां बार-बार क्यों आ रही हैं?’ सदानंद ने पूछा-‘कौन-सी, जरा मैं भी तो सुनूं।’
परमानंद कहने लगे-
‘तुरकी अरबी हिन्दुई, भाषा जेती आहिं।
जेहिं महँ मारग प्रेमकर, सबै सराहैं ताहि।।’
परमानंद के पद को सुनकर सदानंद के मन में शिर्डी के उस फ़क़ीर की याद आने लगी जिसके बारे में उसने सुन रखा था कि वह केवल प्रेम की बात करता था, लोगों को करुणा देता था। उसे उस फ़क़ीर के विषय में जिज्ञासा थी। लेकिन न जाने क्यों उसके मन में भी संत कबीर का एक पद बार-बार आ रहा था-
‘कबीर सो धन संचिए, जो आगे को होइ।
सीस चढ़ाए

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