Yogi Kathaamrt
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Description

The Autobiography of Yogi The book is of Paramahansa Yogananda's remarkable life story that opens our minds to the joys, the boundless beauty and the unending possibilities of every living being. The book narrates about the world of Yogis and Saints, Science and miracles, death and rebirth. Also, reveals the deepest secrets of life and of this world. It emphasizes the value of KRIYA YOGA, and a life of self-respect, calmness, determination, simple diet, and regular exercise.A complete study of the science of Kriya Yoga, which is a simple, psychophysiological method by which the human blood is decarbonized and recharged with oxygen.It helps the people to nurture their spiritual growth and awaken to Self and God-realization."A book that opens windows of the mind and spirit." - India Journal

Informations

Publié par
Date de parution 01 juin 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789352612901
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0166€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

योगी कथामृत
एक योगी की आत्मकथा
 

 
eISBN: 978-93-5261-290-1
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712100
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2016
Yogi Kathaamrt: Ek Yogi Ki Atmakatha
By - Paramhans Yoganand: An Autobiography
आत्मकथ्य
बीसवीं सदी के महान संत और ‘गुरुदेव’ के रूप में मशहूर परमहंस योगानंद के लिए नियति ने पहले से ही मनुष्य जीवन में उनकी क्या भूमिका होगी, यह तय कर रखा था। गोरखपुर (उ.प्र.) के एक मध्यवर्गीय बंगाली परिवार में मुकुन्दलाल घोष के रूप में जन्मे योगानंद के माता-पिता महान क्रियायोगी लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे। लाहिड़ी महाशय की प्रेरणा से ही योगानंद आध्यात्मिकता के पथ पर अग्रसर हुए। परमहंस योगानंद ने अपने अनुयायियों तथा योग के जिज्ञासुओं को ‘क्रिया योग’ का उपदेश दिया, जो सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित हुआ। योगानंद के अनुसार क्रिया योग ईश्वर से साक्षात्कार की एक प्रभावी विधि है, जिसके पालन से कोई भी साधक न केवल अपने जीवन को संवार सकता है, वरन् ईश्वर को भी खोज लेता है।
परमहंस योगानंद उन महान विभूतियों में से एक थे, जो भारत का सच्चा वैभव रहे हैं। लोग उन्हें ‘ईश्वर का अवतार’ मानते थे। अपनी जन्मजात सिद्ध व चमत्कारिक शक्तियों के माध्यम से उन्होंने अनगिनत लोगों के जीवन में खुशियां भर दी। लाखों की संख्या में देश और विदेश में लोग उनके अनुयायी बने।
कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातक योगानंदजी की इस आत्मकथा में सब धर्मों की एकता, मानवमात्र में बंधुत्व की भावना का महान संदेश और परमात्मा की अनन्यता का ज्ञान एवं अनुभूति प्राप्त होती है।
परमहंस योगानंद के सान्निध्य में ‘क्रिया योग’ की प्रक्रियाओं के शिक्षण से दीक्षित उनके अनुयायियों को बाहरी एवं आंतरिक तनाव, भ्रांत धारणाओं, घृणा, भय और असुरक्षा से विदीर्ण जगत में आंतरिक शांति, आनंद, विवेक, प्रेम और परिपूर्णता को पाने का ज्ञान प्राप्त हुआ।
परमहंस योगानंद जी द्वारा प्रतिपादित आदर्श जीवन-पद्धति पर आधारित विद्यालय ‘योगदा सत्संग मठ’ है, जो दक्षिणेश्वर, कोलकाता में गंगा के किनारे स्थित है। अपने जीवन काल में और उसके बाद भी अपने आध्यात्मिक संदेश को दूर-दूर तक प्रसारित करने और अपने मिशन के उत्तरोतर विकास को एक सुदृढ़ संगठनात्मक आधार प्रदान करने के लिए उन्होंने भारत में ‘योगदा सत्संग सोसायटी’ तथा संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में ‘सेल्फ रियलाइजेशन फ़ेलोशिप’ की स्थापना की, जिसकी शाखाएं समूचे संसार में हैं। इन संस्थाओं में परमहंस योगानंद की रचनाएं, उनके व्याख्यान, कक्षाएँ, क्रिया योग ध्यान की पाठशालाएँ तथा अनौपचारिक भाषण इत्यादि के प्रकाशन का कार्य होता है। इसके अलावा यहां संन्यास प्रशिक्षण कार्यक्रमों तथा विश्व प्रार्थना मंडल का भी संचालन किया जाता है, जो जरूरतमंदों की सहायता तथा सम्पूर्ण विश्व के लिए सामंजस्य एवं शांति के माध्यम का कार्य करती है। इसके माध्यम से असंख्य लोग शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर चुके हैं।
कहा जाता है कि एक ईश्वर प्राप्त योगी अपने भौतिक शरीर का आकस्मिक रूप से त्याग नहीं करता। उनको पृथ्वी से अपने महाप्रयाण के समय का पूर्व ज्ञान होता है। उन्होंने अपने मृत्यु की भावी सूचना संकेतों में अपने अनुयायियों को दे दी थी। 7 मार्च, 1952 को अमेरिका में परमहंस योगानंद परम शान्ति पूर्ण चिरनिद्रा में सो गए। उनका पार्थिव शरीर आज भी फॉरेस्ट लॉन मेमोरियल पार्क, लॉस एंजेलिस में अस्थायी रूप से रखा हुआ है। एक दृढ़ आध्यात्मिक संकल्प, ईश्वर के लिए समर्पित संपूर्ण जीवन, पूर्व और पश्चिम के बीच एक सजीव सेतु-ये विशिष्टताएं परमहंस योगानंद के जीवन व कार्य की थी।
परमहंस योगानंद की यह आत्मकथा, पाठकों और योग के जिज्ञासुओं को संतों, योगियों, विज्ञान और चमत्कार, मृत्यु एवं पुनर्जन्म, मोक्ष व बंधन, की एक ऐसी अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाती है, जिससे पाठक अभिभूत हो जाता है।
विषय सूची मेरे माता-पिता एवं मेरा बचपन माँ का देहांत और अलौकिक तावीज हिशरीरी संत हिमालय की ओर मेरे पलायन में बाध गंध बाबा के चमत्कारी प्रदर्शन बाघ स्वामी प्लवनशील संत भारत के महान वैज्ञानिक सर जगदीशचन्द्र बोस परमानन्दमग्न भक्त और उनकी ईश्वर के साथ प्रेमलीला अपने गुरु श्रीयुक्तेश्वरजी से मेरी भेंट दो अकिंचन बालक वृन्दावन में अपने गुरु के आश्रम की कालावधि विनिद्र संत समाधि लाभ फूलगोभी की चोरी शशि और तीन नीलम एक मुस्लिम चमत्कार-प्रदर्शक मेरे गुरु कोलकाता में, प्रकट होते हैं श्रीरामपुर में कश्मीर-यात्रा में बाधा हमारी कश्मीर यात्रा मेरा संन्यास-ग्रहण-स्वामी-संस्थान के अंतर्गत भाई अनंत एवं बहन नलिनी क्रिया योग विज्ञान रांची में योग-विद्यालय की स्थापना काशी का पुनर्जन्म और उसका पता लगना रवीन्द्रनाथ टैगोर और मेरे विद्यालयों की तुलना चमत्कारों का नियम पुण्यशीला माता से भेंट मृतक राम को पुनः जीवन-दान आधुनिक भारत के महावतार बाबाजी हिमालय में महल का सृजन लाहिड़ी महाशय का अवतार सदृश जीवन पश्चिम के प्रति बाबाजी की अभिरुचि मेरा अमेरिका-गमन लूथर बर बैंक-गुलाबों के बीच एक संत मेरा भारत लौटना दक्षिण भारत में एक काव्यात्मक दृश्य अपने गुरु के साथ कुछ अंतिम दिन श्रीयुक्तेश्वरजी का पुनरुत्थान महात्मा गांधी के साथ वर्धा में बंगाल की आनंदमयी माँ निराहारी योगिनी एन्सिनीटस (कैलिफोर्निया) में 1940-1951 की अवधि
मेरे माता-पिता एवं मेरा बचपन
परम सत्य और उसके साथ जुड़े गुरु-शिष्य संबंध की खोज करते-करते मेरे अपने मार्ग ने मुझे एक भगवत्स्वरूप सिद्ध पुरुष के पास पहुँचा दिया, जिनका जीवन युगों को आदर्श बनाने के लिए ही तराशा हुआ था। वे उन महान विभूतियों में से एक थे, जो भारत का सच्चा वैभव रहे हैं। ऐसे सिद्धजनों ने ही अवतरित होकर अपने देश को दुर्गति प्राप्त होने से बचाया है।
मेरे शैशव-काल में पिछले जन्म की स्मृतियाँ उभर रही थीं। ये स्मृतियाँ घटनाओं के घटित होने के क्रमानुसार नहीं थीं। उस जन्म की स्पष्ट स्मृतियाँ तब जागती थीं, जब मैं हिमालय का एक योगी था। अतीत की इन झांकियों ने अज्ञात से जुड़कर भविष्य की भी झलक दिखाई।
शिशु अवस्था की अवमाननाओं की स्मृति अभी भी बनी हुई है। चल-फिर पाने और अपनी भावनाओं को व्यक्त कर पाने में असमर्थता के कारण मैं क्षुब्ध रहता था। शरीर की अक्षमताओं का भान होते ही प्रार्थना की लहरें भीतर उठने लगती थीं। व्याकुल भाव अनेक भाषाओं में मन में व्यक्त होते थे। मैं धीरे -धीरे अपने लोगों के बंगाली शब्द सुनने का अभ्यस्त होता गया। यह थी शिशु-मस्तिष्क की मन बहलाने की सीमा।
इस विक्षुब्धता और शरीर के कारण कई बार मैं झल्लाकर रो पड़ता था। मेरी आकुलता पर परिवार का विस्मय मुझे याद है। सुखद स्मृतियाँ भी हैं- माँ का दुलार, तुतलाने तथा लड़खड़ा के चलने के मेरे प्रयास। हालाँकि इन आरंभिक सफलताओं को भुला दिया जाता है, परन्तु फिर भी ये आत्मविश्वास की आधार-शिलाएँ होती हैं।
मेरी इन स्मृतियों का होना कोई अपूर्व बात नहीं है। अनेक योगियों के विषय में ज्ञात है कि उन्होंने जन्म-मृत्यु के नाटकीय परिवर्तन में भी अपने आत्मबोध को बनाए रखा। शैशवावस्था की स्पष्ट स्मृतियों का होना विलक्षण है, किन्तु ऐसी घटनाएँ दुर्लभ भी नहीं।
मेरा जन्म गोरखपुर में 5 जनवरी, 1893 ई. को हुआ था। वहीं जीवन के पहले आठ वर्ष व्यतीत हुए। हम आठ बच्चे थे, चार भाई और चार बहनें। मैं मुकुंदलाल घोष, भाइयों में दूसरा और चौथी संतान था।
मेरे माता-पिता बंगाली क्षत्रिय थे। दोनों ही संत-प्रकृति के थे। माता-पिता के बीच आपसी सामंजस्य चारों ओर चलने वाले आठ नन्हे जीवों के कोलाहल का शांत केन्द्र था।
मेरे पिता श्री भगवतीचरण घोष दयालु, गंभीर और कभी-कभी कठोर थे। वे असाधारण गणितज्ञ और तर्क शास्त्रवेत्ता थे तथा बुद्धि से ही काम लेते थे, किन्तु मां तो स्नेह की देवी थीं। मां के देहान्त के पश्चात् पिताजी अपनी आंतरिक कोमलता अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त करने लगे।
माँ के सान्निध्य में हम बच्चों को बचपन में ही धर्मग्रंथों के साथ परिचय हो गया। अनुशासन की आवश्यकता पर मां रामायण और महाभारत से कहानियाँ सुनाती थीं।
पिताजी के कार्यालय से घर आने पर शाम को मां बच्चों को कपड़े पहनाकर तैयार करतीं। पिताजी बंगाल-नागपुर रेलवे बी.एन.आर. में उपाध्यक्ष के समकक्ष पद पर कार्यरत थे। यात्रा उनके कार्य का एक हिस्सा थी। हमारा परिवार मेरे बाल्यकाल के दौरान अनेक शहरों में रहा।
माँ गरीबों की सहायता के लिए सदा तत्पर रहती थीं। पिताजी भी अपनी आर्थिक सीमा के अंदर ही व्यय करना पसंद करते थे। एक बार मां ने गरीबों को खिलाने में पिताजी की आय से अधिक रकम खर्च कर दी। इस पर पिताजी ने मां से कहा- “कृपा करके अपना दान धर्म उचित सीमा के अंदर करो।” माँ को यह उलाहना व्यथा जनक लगा। माँ ने एक घोड़ागाड़ी मंगवाई।
“नमस्कार! मैं अपने मायके जा रही हूँ।” माँ ने प्राचीन धमकी दी। हम लोग विलाप करने लगे। उसी समय हमारे मामा आ गए। उन्होंने पिताजी के कान में फुसफुसा कर कोई परामर्श दिया। पिताजी के स्पष्टीकरण के बाद उन्होंने घोड़ागाड़ी लौटा दी। एकमात्र विवाद का अंत हुआ, परन्तु एक विशेष संवाद याद आता है, “कृपया घर पर एक असहाय महिला के लिए मुझे 10 रुपए दीजिए।”
‘10 किसलिए? एक रुपया काफी है।’ पिताजी ने इसके साथ जोड़ दिया।
“मेरे पिताजी और दादा-दादी की मृत्यु होने के बाद मैंने गरीबी का अनुभव किया। मीलों चलकर स्कूल जाने से पहले मेरा नाश्ता होता था एक छोटा केला। कॉलेज पहुँचने तक अवस्था इतनी बुरी हो गई कि मैंने एक न्यायाधीश से मासिक एक रुपए की सहायता की प्रार्थना की। उसने मना कर दिया कि एक रुपया भी मूल्यवान होता है।”
“तुम जीती!” पिताजी ने अपना बटुआ खोला और कहा- “लो 10 रुपए महिला को शुभकामनाओं सहित दे दो।”
किसी एक नए प्रस्ताव पर पहले ‘नहीं’ कह देना पिताजी का स्वभाव था। मैंने सदा ही देखा कि पिताजी संतुलित निर्णय लेते थे। यदि मैं पक्ष में अच्छे तर्क प्रस्तुत कर देता, तो वे मेरी इच्छा पूरी कर देते, चाहे वह छुट्टियों में भ्रमण की बात हो या नई मोटरसाइकिल की।
पिताजी अनुशासन में बच्चों के साथ दृढ़ता बरतते थे, परन्तु स्वयं सरल, सात्विक जीवन व्यतीत करते थे। वे कभी थियेटर नहीं गए। विभिन्न साधनाओं और भगवद्गीता पढ़ने में ही उन्हें आनंद आता था। उन्होंने सारे सुखों का त्याग कर दिया था। वे जूतों की एक जोड़ी का भी तब तक प्रयोग करते, जब तक वह बिलकुल फट न जाए। उनके बेटों ने कारें खरीद लीं, परन्तु पिताजी ऑफिस जाने के लिए ट्राम गाड़ी से ही संतुष्ट रहे।
धन संचय करने में पिताजी को कोई रुचि नहीं थी। कोलकाता अर्बन बैंक के गठन के बाद अपने लाभ के लिए उसके शेयर रखने से इनकार कर दिया। उनकी इच्छा तो केवल अपने नागरिक कर्त्तव्य का निर्वाह करने की थी। पिताजी के सेवानिवृत्त होने के वर्षा बाद बंगाल-नागपुर रेलवे के बही-खातों की जांच करने इंग्लैंड से एक अकाउंटेंट आए। अधिकारी ने देखा कि पिताजी ने उचित समय पर अदा न किए गए बोनस के लिए कभी आवेदन नहीं किया था।
उन्होंने कंपनी को बताया- “इन्होंने अकेले तीन आदमियों के बराबर काम किया है। पिछली क्षति पूर्ति स्वरूप इनका 1 लाख 25 हजार रुपया कंपनी से निकलता है।” कोषाध्यक्ष ने उक्त रकम का चेक भेज दिया, पर मेरे पिताजी ने इस घटना को इतना नगण्य माना कि वे परिवार को बताना ही भूल गए। बहुत बाद में मेरे सबसे छोटे भाई विष्णु ने बैंक विवरण में इतनी बड़ी राशि देखकर पूछा था- “भौतिक लाभ से इतना उल्लासित क्यों हो?"
पिताजी ने कहा- “समभाव को जिसने अपना लक्ष्य बना लिया हो, वह न किसी लाभ से उल्लासित होता है, न ही किसी हानि से दुःखी। मनुष्य इस संसार में खाली हाथ आता है और खाली हाथ ही चला जाता है।”
वैवाहिक जीवन के शीघ्र बाद पिता महान गुरु, बनारस के लाहिड़ी महाशय के शिष्य हो गए। इससे पिताजी के विरक्त स्वभाव को और बल मिला। मां ने एक बार सबसे बड़ी बहन रोमा को एक बात बताई- “तुम्हारे पिताज

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