ISHQ
42 pages
English

Vous pourrez modifier la taille du texte de cet ouvrage

Découvre YouScribe en t'inscrivant gratuitement

Je m'inscris

Découvre YouScribe en t'inscrivant gratuitement

Je m'inscris
Obtenez un accès à la bibliothèque pour le consulter en ligne
En savoir plus
42 pages
English

Vous pourrez modifier la taille du texte de cet ouvrage

Obtenez un accès à la bibliothèque pour le consulter en ligne
En savoir plus

Description

'Ishq' is the story of two very innocent young man and woman, who don't know about their caste, belong to the lower class, who are trapped in a male-dominated and exploitative network of people of power. Despite all women-centered debates and revolutions related to the empowerment of women, they are still not free and independent. In this capitalist and ultra-modern world they are still being exploited from all sides in a net of male-dominance. Inside their homes they are trapped in feudalistic values of what is dignified and what is prestigious for the family and in the office they are forced to undergo mental and physical exploitation in a set-up that still considers them inferior to the males. In this story, the female protagonist, Sumitra is gradually coming out to invoke the Durga inside her to fight against these feudalistic values that have chained her and how she removes the curtain of idiocy of her faithful servant, Konda and how she used him as a weapon.

Sujets

Informations

Publié par
Date de parution 19 juin 2020
Nombre de lectures 1
EAN13 9789390088164
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0106€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

इश्क
 

 
eISBN: 978-93-9008-816-4
© लेखकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
ISHQ
By - Shukla Chaudhury
1
आकाश में चाँद खिला पूरा, पीतल की थाली बराबर। चाँदनी में नहा उठा जंगल। चाँद से चूंई चूंई कर झरने लगा अमृत। फागुनी, बल्ली के कंधे से झूल गई।
“बाबू आज पूनो है...”
“अएं... अभी-अभी तो अमावस था, अभिये पूरणमासी,” बल्ली का दिल धक-धक करने लगा। अंधा बल्ली बिटिया को छू-छू कर देखता रहा, फिर धीरे-धीरे शान्त हो गया, ‘नहीं-नहीं नानकून है फागुनी बिटिया’, मन ही मन बुदबुदाया बल्ली।
झोपड़ी का दरवाजा खड़खड़ाया।
“कौन?” बल्ली लाठी को जमीन पर जोर से पटका।
“कोंदा हंव काका”
“रात बेरात काहे रे हरामी, जा भाग।”
“काका”
“बक दे।”
“ठाकुर मेवालाल का पाखाना जाम हो गया।”
“तो?”
“बुलवाया है”
“नहीं जाऊंगा, जा भाग बे...ठाकुर का गुलाम।” कोंदा हिम्मत नहीं हारा, दरवज्जा पे ही डटा रहा। चाँदनी हरहरा रही थी।
“पाँच दिन का राशन-पानी घर पहुंचा दिही, कहत रहीन ठकुराईन...।” कोंदा भीतर आने के लिए कसमसाया। उसकी जेब में चना-गुड़ था जो सुबह से फागुनी के लिए बचा कर रखा था। कब दे, कहाँ पर दे, समझ नहीं पा रहा था कोंदा।
“खबरदार! जो पांव भीतर रखा” कोंदा दो कदम फिर पीछे हट गया।
अंधे काका की कितनी आँखें, कोंदा जाते-जाते सोचने लगा। कोंदा ने सीधे ठाकुर के घर का रुख किया।
अभी छोटे ठाकुर की तेल-मालिश बची है। ठाकुर और बड़के दोनों भाईयों की तेल-मालिश हो चुकी है।
कोंदा सात साल की उम्र से ठाकुर का नौकर है। ठाकुर के घर का बासी-तेबासी खा-खाकर सोलह, सतरह साल का गबरू जवान होने चला है काला भुसंड, बातें करता कम हकलाता ज्यादा।
जब कोंदा ठाकुर के घर पहुंचा, मालकिन दरवाजे पे खड़ी थी। हुलस उठी कोंदा को देखकर।
“बल्ली ईईई, आ गया भैया!”
“मैं कोंदा हूँ ठकुराइन...”
“अ...” ठकुराइन की आवाज सूखे कुएं से होकर निकली। यह कोई मामूली बात नहीं थी कि जहाँ एक खास पूजा के लिए आए हुए मेहमानों से घर भर रहा हो वहाँ तीन पाखानों के मुख्य पाईप लाईन अचानक जाम हो जाए। ठकुराइन सुमित्रा देवी रूंवासा हो आई। वो परछी के कोने में रखे उस झोले को बार-बार निहार रही थीं जिसमें बल्ली के लिए पाँच दिन का राशन रखा हुआ था। सुमित्रा देवी थोड़ा भावुक किस्म की औरत थी। उसने सबकी नजरें बचाकर थोड़ा सा घी, कटोराभर शक्कर चावल के बीच में छुपाकर रख दिये थे कि बल्ली खुश हो जायेगा और फिर बुलाने पर वक्त-बेवक्त आ भी जाएगा। बड़ा बेटा सुखविंदर कोंदा को अकेले आया देखकर बौखला गया...
“साला बड़ा भाव खाने लगा आजकल...जाकर टेंटुआ दबा दूं क्या अम्मा, या बाबू कहे तो झोपड़ी में आग लगा दूं, एक मिनट लगेगा...” इतने में ठाकुर मेवालाल लोटा लेकर मैदान जाने के लिए आंगन में आए और उबलते बेटे को ठंडा करते हुए बोले...
“यह वक्त नाराजगी का नहीं है बेटा धीरज रखना जरूरी है। समय हमारे हाथ में नहीं रहा बेटा, नहीं तो बल्ली की ये मजाल! और फिर रात में सफाई होगी भी नहीं, जो भी होगा कल होगा” : फिर वे पत्नी के कान के पास मुंह ले जाकर फुसफुसाए...
“सुनो, खाना खाने से पहले बहुओं को लेकर मैदान होती आ एक बार”
“अजी इस चाँदनी रात में आर-पार दिखता है गाँव, न पेड़ है न झाड़-झंकार, कहां जाई” खीज उठे ठाकुर मेवालाल पत्नी की बात सुनकर...
“मूरख ही रह गई न जीवन भर, अस्कूल का पिछवाड़ा किस दिन काम आयेगा भला।” ये कहते हुए मेवालाल आंगन के बाहर मैदान की ओर चल दिए। सुमित्रा देवी वहीं खड़ी-खड़ी अपने औरत होने पर पछता रही थी। अच्छा ही हुआ जो उसके बेटी नहीं हुई, पर कभी-कभी एक हूक सी उठती है, खास कर उस वक्त जब सबकी नज़रों में उनका कोई मान न रहता। सुमित्रा देवी ने सुन रखा था कि बेटी हमेशा माँ की होती है।
उनकी एक भी बेटी नहीं थी। जब मोती और लट्टू की शादी हुई तब सुमित्रा देवी का मन खूब डोला था यह सोचते हुए कि चलो बेटी नहीं हुई तो क्या हुआ, बहू भी तो बेटी जैसी ही है। पर इस सोच पर तब पानी फिरा जब दोनों बहुएं सास को छोटा करने के लिए ससुर का साथ देने लगीं, हाँ में हाँ मिलाने लगीं। अब छोटी बहू की आस लगाए बैठी हैं सुमित्रा देवी।
2
चमार टोला।
पत्थरों के बदन को जख्मी कर बसाए गए डोम और चमारों के कुछ घर। पता ही नहीं चलता ये सब कब आते हैं, कब अपना काम शुरू करते हैं और बेआवाज एक घर बन जाता है। पत्थरों को जोड़कर हर घर के आगे एक आंगन। दो पहाड़ियों को बीच से काटती एक सड़क जो पहाड़ के थोड़े से हिस्से तक ही चढ़ पाती है। यही सड़क जब उतरती है तब नीचे आकर तेजी से शहर बनते गाँव की सड़कों में गुम हो जाती है। ये टोला बड़ी होशियारी से पानी की कमी को भी पूरा कर लेता है। कोई नहीं जानता कब किसने एक मोटी सी पाईप-लाइन में छेद कर दिया है, उस छेद की जरूरत पड़ने पर खोला और बंद कर दिया जाता है। शाम होते ही दो-तीन बिजली के लट्टू जल जाते हैं। ये बिजली कहाँ से आई, कैसे आई, कोई नहीं जानता। अगर कभी कोई सरकारी कर्मचारी इस बे-सरकारी टोले में पूछताछ के लिए आता है तब वहाँ कुछ इस तरह का कौतुकभरा दृश्य उपस्थित हो जाता है कि उस कर्मचारी को बिना कुछ हासिल हुए उल्टे पांव लौट जाना पड़ता है। कर्मचारी को देखते ही औरत-मर्द सब एक के पीछे एक बाहर निकल आते जैसे अपनी-अपनी गुफा से चार पैरों वाले जानवर। वे किसी सवाल का जबाब नहीं देते, आपस में ही हंसते बतियाते रहते हैं।
बल्ली के आंगन में एक नीम का पेड़ है जिसे फागुनी की माँ ने कहीं से ला कर लगाया था। वह पेड़ जो अब छांव देने लगा है। कोंदा के जाने के बाद बाप-बेटी सुबह का बचा हुआ बासी खाकर एक झिलंगी खाट पर लेट गए। ये झिलंगी खाट ठकुराइन की ही तरफ से दी गई थी जब एक मरे हुए कुत्ते को बल्ली, ठाकुर के दरवाजे से दूर जंगल में ले जाकर फेंक आया था।
पत्थरों को ठंडा होने में काफी वक्त लगता है। गर्म हवा के थपेड़े आधी रात तक चलती रहती है। पिता के गले में बांह डाल फागुनी जंगल की कहानी सुनाती है।
“बाबू”
“ऊँ...”
“कल गिलहरी पियारी के तीन बच्चे हुए”
“अच्छा!!”
“हाँ बाबू”
“बहुतेच गोरे”
“अच्छा!!”
“हम नाम भी रख दिए”
“का नाव रक्खे बता”
“गिल्लू, टिल्लू और चुन्नी” नाम सुनकर बल्ली हंसने लगा। फागुनी उठ बैठी।
“तुम हंसे काहे बाबू।”
“तू कैसे जान गई कि तीन बच्चों में एक लड़की होगी, चुन्नी तो लड़की का नाम है”
“सारे लड़के कैसे हो सकते हैं बाबू, उसमें एक लड़की तो जरूर होगी, है न बाबू?” बल्ली प्यार से बिटिया के सर पर हाथ फेरता है।
“बड़ी सयानी हो गई है तू, चल अब सो जा” पेट खूब भरा हो तो नींद आए। खाली पेट किसे जल्दी नींद आती है भला! फागुनी फिर उठ बैठी...।
“बाबू”
“हूँ...”
“महुआ दादी कह रही थी...”
“का कह रही थी, काकी?”
“कह रही थी, ठकुराइन को बड़ा दुख है उसके पास लड़की नहीं है”
“हूँ...”
“तुम्हारे पास तो मैं हूँ...”
“हव, अब सो जा मुझे नींद आ रही है” बल्ली करवट बदल लेता है। फागुनी चुप हो जाती है। खाली पेट बाबू कैसे रोज सो जाते हैं पता नहीं, फागुनी सोचती है।
चाँद की हंसी नीम के झिरी-झिरी पत्तों पर बल खा रही है। फागुनी जम्हाई लेती है।
ठकुराइन घर की मालकिन जरूर है पर वजूद एक पैसे का भी नहीं। भगवान पर अगाध विश्वास लिए दिन भर में पाँच छह बार नहाती है। अभी जब से पाखाने की दुर्गति सामने आई है तब से वह कितनी बार और नहाती है उसे खुद ही होश नहीं है। कोंदा कुंए के जगत पर ही प्रायः बैठा रहता है। न जाने कब ठकुराइन का बुलावा आ जाए कि, “जा बेटा केंदवा, एक बाल्टी पानी भर दे।”
दो नहानी घर बड़े शौक से बनवाए थे सुमित्रा देवी ने, पर दोनों ही दो बहुओं के कब्जे में चले गए। बड़ी बहू, नागपुर वाली, संध्या के नहानी घर में बारिश ठंड में एक बार कदम रख भी दे, पर कटनी वाली बहू ‘जूही’ अपने नहानी घर में हमेशा ताला लटकाये रखती है। जूही पैसे वाले बड़े घर की बेटी है। उसके नाजो-नखरे भी बहुत, ससुर की मुंह लगी है। गाना सुनती है तो सुनती ही रहती है, फोन में रहती है तो दुनिया ठेंगे पे। अभी दो दिनों से खाली जूस पर चल रही है। कल अगर बल्ली नहीं आया तो वह मैके चली जायेगी, कह रही थी। उसके नहानी में एक आदमकद आइना है, एकबार उसपर उसकी छाया-सी गिरी थी, चौंक गई थी सुमित्रा ठकुराइन खुद को देखकर। मन हुआ था खुद को एकबार और निहार लें, पर डर के मारे बाहर आ अपने कमरे में समा गई। धक-धक करते धड़कनों ने उसके कान में मंत्र सा फूंककर कहा था, तुम वैसी की वैसी ही हो सुमित्रा एक तिल भी बदली नहीं हो।
अठारह साल की उम्र में ब्याह कर आई थी सुमित्रा। तीस साल तक आते-आते मन पर सौ मनों का बोझ कब चढ़ गया, उसे पता ही नहीं चला। वह उदास कुएं की जगत पर बैठ गई। उसे फिर एकबार नहाना था। सुमित्रा ने कोंदा को आवाज लगाई...
“केंदवा रे...”
“आया, ठकुराइन...”
“पानी निकाल दे बचवा”
“हव”
“पर्दा ले आया...?”
“हव, ई देक्खव”
“जा पहले इसे बाँध दे”
“हव” कोंदा कुएं के बगल में पहले से गाड़ कर रखे गए चार बांसों के चारों ओर चद्दर से पर्दा करने लगा। यहीं पर नहायेगी ठकुराइन और पहरे पे बैठा रहेगा कोंदा, जिसके हाथ पे चमकती रहेगी एक तेल चुपड़ी लाठी। कोंदा ने बाल्टी में रस्सी बांधी फिर घिर्री में रस्सी डालकर बाल्टी कुएं में छोड़ी। बाल्टी पानी के संपर्क में आते ही बड़े जोर से आवाज आई- छ..पा..क......
पहले अंधा नहीं था बल्ली। औरों की तरह ही दो आँखें थीं और दो आँखों के सामने थी बेईमान-हरामखोर दुनिया। वह जब-जब फागुनी को देखता था उसका मन हिकारत से भर उठता। ये सूरत न बल्ली सी लगती न जमनी सी। बड़ी-बड़ी हिरणी सी आँखें घुंघराले काले बाल और झक्क गोरा रंग। जमनी, मरते वक्त फागुनी को गोद में डाल कह गई थी...
“फागुनी के बाबू! इसे सीने से लगाये रहना, इसे असरधा नहीं करना, ये एक माँ की बेटी है और कछु नाहीं...”
जंगल, पहाड़, महुआ का पेड़ खूब अपने थे जमनी के। बल्ली घर में रहता, जमनी भागती जंगल। बल्ली खाना बनाता, झाड़ू-बर्तन करता। यह सब देखकर महुआ काकी खिलखिल हंसा करती...कहती...
“बल्ली, इतना न सर पे चढाये रख बहू को, काम करेगी तो कुछ सीखेगी ही घिस न जायेगी” बल्ली खूब हंसता।
“बैठ जा काकी, चाय बनाता हूँ...”
“रहने दे, रहने दे। चाय पीने का टेम नहीं अभी...” फिर खुद ही तगादा देती जमनी को।
“अरे जल्दी कर बहू बेर उगे से पहले महुआ तरी पहुंचना जरूरी” ये महुआ झरे के दिन होते। ठंडी मौसम में चमार टोला महुआ की महक से गमकता रहता। हर पाथर पर महुआ सूखता, हर घर में महुआ पकता। महुआ-महुआ दिन, महुआ-महुआ रात होती। बहुओं-बेटियों में होड़ लगी रहती कौन सबसे पहले पहुंचेगा महुआ तरी। जो महुआ तरी सबसे पहले पहुंचता, जंगल में आग वही बारता। महुआ बिनने का भी तो एक कायदा है फुगरी खेलने की तरह, औरतें उसी तरह बैठतीं गीत गाती, टपाटप महुआ गिरते, फटाफट वे बिनती जातीं। फिर फुगरी की ही चाल में वे सब आगे बढ़ जातीं। एक जगह जमा होता महुआ फिर होता भाग-बटवारा। भाग करती महुआ काकी, कोई चूं नहीं करता। सबको बराबर हिस्सा। महुआ के दिनों में जमनी पैसा बचाकर रखती। झूमका, बिंदी, चूड़ी फिर कभी थोड़ा मांस कभी मछरी।
“बाबू, उठो-उठो” हड़बड़ा गया बल्ली। सपना था या सच क्या जमनी सपने में आई थी...?
“बाबू, ये लो लाठी और खटिया पर से उतर जाओ...”
“सुबह हो गई का बिटिया”
“बाबू-लो हाथ पकड़ो, ठकुराइन दुरा पे खड़ी है...”
ये उबड़-खाबड़ रास्ते जहां से चलकर आपादमस्तक ढांककर जिससे कि कोई पहचान न लें, ठकुराइन उस घर के सामने खड़ी थी जिसको देखकर लोग एक हाथ की दूरी बना लेते हैं। यहाँ के लोग रेशम नहीं बुनते, नाली साफ करते हैं, मरे हुए जानवर को दूर ले जाकर फेंकते हैं। यहाँ कुछ लोग कोड़ाकू जाति के हैं, जो यहाँ आ बसे हैं। तीर-धनुष उठाए बच्चे-बूढ़े हरदम जब देखो तब पहाड़ की परिक्रमा करते रहते हैं। ये जो भी मिल जाए उसे ही उदरस्थ कर लेते हैं। घास-फूस के छप्पर से जब गाढ़ा धुंआ निकलता है तो समझो कि कुछ तो पक रहा है कोई चिड़िया या कोई मरा हुआ जानवर। जब मरे हुए जानवर को आग में पकाया जाता है, बिना तेल क

  • Univers Univers
  • Ebooks Ebooks
  • Livres audio Livres audio
  • Presse Presse
  • Podcasts Podcasts
  • BD BD
  • Documents Documents