Amavasya Ki Ratri Tatha Anya Kahaniyan (Mansarovar
203 pages
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Amavasya Ki Ratri Tatha Anya Kahaniyan (Mansarovar , livre ebook

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Description

As a story-writer Premchand had become a legend in his own lifetime. The firmament of Premchand's stories is vast. In view of variety of topics, he, as though, had encompassed the entire sky of humane world into his fold. Each of Premchandji's stories unravels many sides of human mind, many streaks of man's conscience, the evils in some societal practices and heterogeneous angles of economic tortures. All this is done with complete artistry. His stories stir the readers' mind even today by means of their variegated layers of thoughts and feelings. They are all the heralds of human glories coming from the pen of a time-tested author. The very intrinsic nature of his stories, their external formats unfold their entire uniqueness and appeal to the reader's mind. Owing to such special features Premchandji's stories are still relevant today, as much as they were five decades ago. The chief themes of his stories are rooted to the rural life with city social life appearing as the contrast to illustrate the complete picture of contemporary Indian life. The stories of Munshi Premchand, fighting on behalf of the downtrodden of the society, who are suffering from the social and economic agonies, are the strongest assets of our Literature.

Informations

Publié par
Date de parution 01 janvier 0001
Nombre de lectures 0
EAN13 9789352966219
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0158€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

अमावस्या की रात्रि तथा अन्य कहानियां
अमावस्या की रात्रि : पंडित देवदत्त के घर पर अमावस्या की रात दीवाली के दिन भी दिये नहीं जले। उसकी माली हालत बेहद खराब थी और पत्नी गिरजा बहुत बीमार थी। देवदत्त के पास पैसे नहीं थे फिर भी वह प्रसिद्ध वैद्य लाला शंकरदास के पास अपनी पत्नी के इलाज के लिए बुलाने गया लेकिन हृदयहीन और लालची वैद्य शंकर दास का दिल नहीं पसीजा। इलाज नहीं होने से गिरिजा की मृत्यु हो जाती है। कहानीकार ने इस कहानी में मनुष्य के अंतर में छायी अमावस्या का सजीव चित्रण किया है।
प्रेमचंद का कथा साहित्य : प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी को एक निश्चित परिप्रेक्ष्य और कलात्मक आधार दिया। उन्होंने कहानी के स्वरूप को पाठकों की रुचि, कल्पना और विचार शक्ति का निर्माण करते हुए विकसित किया है। उनकी कहानियों का भाव-जगत् को सरलता से महसूस किया जा सकता है। कहानी-क्षेत्र में वे वास्तविक जगत की उपज थे। उनकी कहानी की विशिष्टता यह है कि उसमें आदर्श और यथार्थ का गंगा-यमुनी संगम है। कथा का रूप घटनाओं और चरित्रें के माध्यम से निरुपित होता है। कथाकार के रूप में प्रेमचंद अपने जीवनकाल में ही किंवदन्ती बन गए थे। उन्होंने मुख्यतः ग्रामीण एवं नागरिक सामाजिक जीवन को अपनी कहानियों को विषय बनाया है। उनकी कथायात्र में क्रमिक विकास के लक्षण स्पष्ट हैं। जिसे विकास वस्तु ‘विचार’ अनुभव तथा शिल्प सभी स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। उनका मानवतावाद अमूर्त भावात्मक नहीं, अपितु उसका आधार एक प्रकार का सुसंगत यथार्थवाद है।
प्रेमचन्द की सम्पूर्ण कहानियां: विश्व के महान कथाशिल्पी प्रेमचंद की चार भागों में प्रकाशित यह कथा शृंखला उनके संपूर्ण कथा-संसार से पाठकों का परिचय कराती हैं। इन सभी कहानियों में ‘मानसरोवर’ के आठों भागों की संपूर्ण कहानियां समाहित की गई हैं।
अमावस्या की रात्रि तथा अन्य कहानियां
मानसरोवर : भाग - 5
 

 
eISBN: 978-93-5296-621-9
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2019
अमावस्या की रात्रि तथा अन्य कहानियां भाग - 5
लेखक - प्रेमचन्द
प्रेमचंद की कहानियों का रचना संसार
कहानी, साहित्य की सबलतम विधा है। यह एक ऐसा दर्पण है जिसमें व्यक्ति और समाज के परस्पर संबंधों, क्रिया-विधियों, उसके सुख-दुख के क्षणों की सजीव, हृदयग्राही तथा मार्मिक तस्वीरें देखी जा सकती हैं। इसके उन्नयन और विकास में विश्व के अनेक कथाकारों ने जो योगदान दिया, वह भाषा-शैली, रूप-विधान, कला-सौष्ठव तथा तकनीक की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह हिंदी कहानी की उपलब्धि है कि इसे अपने विकास के आदिकाल में मुंशी प्रेमचंद जैसे मानव-मन के कुशल चितेरे मिले जिनके ध्यानी-साहित्य ने न सिर्फ हिन्दी-उर्दू में एक नये युग का सूत्रपात किया, बल्कि अपने वैचारिक अभियान द्वारा समाज की खोखली मान्यताओं पर तीव्र प्रहार करते हुए एक नयी और कल्याणकारी परम्परा की बुनियाद भी रखी। यह हिंदी कहानी की शक्तिमत्ता का एक प्रखर उदाहरण है कि जीवन के अनेक घात-प्रतिघात सहते हुए भी उसने मुंशी की के महान् उद्देश्य और जीवन-परम्परा से अपने को कटने नहीं दिया।
प्रेमचंदजी की कहानियों का फलक व्यापक है और विषय-विविधता की दृष्टि से वे आकाश के विस्तार को अपने दामन में समेटे हैं। हिंदी के प्रख्यात समीक्षक डॉ गौतम सचदेव ने मुंशीजी की कहानियों का मूल्यांकन करते हुए बड़ा ही सटीक और सारगर्भित वक्तव्य दिया है। उनका मत है: ‘विचार तत्त्व उनकी कहानियों का निर्देशक है। विचार को बिछाकर उस पर कार्य-व्यापार को होते हुए दिखाना प्रेमचंद की कहानी-कला का महत्त्वपूर्ण अंग है। यहां यह पूछा जा सकता है कि किसी विचार को लेकर प्रेमचंद कहानी कैसे गढ़ते हैं? क्या वे विचार के अनुकूल पात्रों, घटनाओं में परिस्थितियों की कल्पना कर लेते हैं या इन सबको सामने रखकर विचार का संदर्भ प्रदान करते हैं? लाहौर के मासिक-पत्र ‘नौरंगे खयाल’ के सम्पादक के यह पूछने पर कि आप कहानी कैसे लिखते हैं? प्रेमचंदजी ने उत्तर दिया था: मेरी कहानियां प्रायः किसी-न-किसी प्रेरणा या अनुभव पर आधारित होती हैं। इसमें मैं ड्रामाई रंग पैदा करने की कोशिश करता हूं। केवल घटना वर्णन के लिए या ‘मनोरंजक घटना’ को लेकर मैं कहानियां नहीं लिखता। मैं कहानी में किसी दार्शनिक या भावात्मक सत्य को दिखना चाहता हूं। जब तक इस प्रकार का कोई आधार नहीं मिलता, मेरी कलम नहीं उठती।’ प्रेमचंद जी का उक्त वक्तव्य आज भी प्रासंगिक है।
प्रेमचंद की प्रत्येक कहानी मानव मन के अनेक दृश्यों, चेतना के अनेक छोरों, सामाजिक कुरीतियों तथा आर्थिक उत्पीड़न के विभिन्न आयामों को अपनी समर्थ कलात्मकता के साथ अनावृत करती हैं। कफ़न, नमक का दरोगा, शतरंज के खिलाड़ी, नरक का मार्ग, पूस की रात, पंच परमेश्वर, दो बैलों की कथा, वासना की कड़ियां, दुनिया का सबसे अनमोल रत्न आदि सैकड़ों रचनाएं ऐसी हैं जो विचार और अनुभूति दोनों स्तरों पर पाठक को आज भी आंदोलित करती हैं। वे एक कालजयी रचनाकार की मानवीय गरिमा के पक्ष में दी गई उद्घोषणाएं हैं। समाज के दलित वर्गों, आर्थिक और सामाजिक यंत्रणा के शिकार मनुष्यों के अधिकारों के लिए जूझती मुंशीजी की कहानियां हमारे साहित्य की सबलतम निधि हैं।
शैल्पिक विशेषताओं की दृष्टि से भी प्रेमचंद की कहानियां अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। अपने समकालीन कथा-साहित्य और परवर्ती पीढ़ी को उनकी कहानियों ने यथेष्ट रूप से प्रभावित किया है। कहानी की बुनावट में वे चैतन्य पूर्ण शैल्पिक तैयारी करते हैं। स्वाभाविक पात्रों, विश्वसनीय घटनाओं और सरल स्थितियों के माध्यम से उनकी कहानियों का जन्मा और विकास होता है। कहानी की आंतरिक प्रकृति और बाह्य रूप-विधान अपनी संपूर्ण विशेषताओं को उकेरता हुआ पाठक-मन को आंदोलित करता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण प्रेमचंदजी आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने पांच दशक पहले थे। उनकी कहानियों का क्या संसार चिरनवीन है।
हमारी इच्छा थी कि प्रेमचंदजी के अमर कहानी साहित्य में नयनाभिराम ढंग से डायमंड के सुधी पाठकों के समक्ष कम मूल्य में प्रस्तुत किया जाए। प्रस्तुत संकलन इसी दिशा में एक प्रयास हैं।
- नरेन्द्र कुमार
अनुक्रमणिका
अनुक्रमणिका मंदिर निमंत्रण रामलीला मंत्र (1) कामना-तरु सती हिंसा परमो धर्म बहिष्कार चोरी लांछन कज़ाकी आंसुओं की होली अग्नि-समाधि सुजान भक्त पिसनहारी का कुआं सोहाग का शव आत्मसंगीत ऐक्ट्रेस ईश्वरीय न्याय ममता मंत्र (2) प्रायश्चित कप्तान साहब इस्तीफा
मंदिर
मातृ प्रेम, तुझे धन्य है! संसार में और जो कुछ है, मिथ्या है, निस्सार है। मातृ-प्रेम ही सत्य है, अक्षय है, अनश्वर है। तीन दिन से सुखिया के मुंह में न अन्न का एक दाना गया था, न पानी की एक बूंद। सामने पुआल पर माता का नन्हा-सा लाल पड़ा कराह रहा था। आज तीन दिन से उसने आंखें न खोली थी। कभी उसे गोद में उठा लेती, कभी पुआल पर सुला देती। हंसते-खेलते बालक को अचानक क्या हो गया, यह कोई नहीं बताता। ऐसी दशा में माता को भूख और प्यास कहां? एक बार पानी का एक घूंट मुंह में लिया था, पर कंठ के नीचे न ले जा सकी। इस दुखिया की विपत्ति का वार-पार न था। साल भर के भीतर दो बालक गंगा की गोद में सौंप चुकी थी। पतिदेव पहले ही सिधार चुके थे। अब उस अभागिनी के जीवन का आधार, अवलम्ब, जो कुछ था, यही था। हाय! क्या ईश्वर इसे भी उसकी गोद से छीन लेना चाहते हैं? - यह कल्पना करते ही माता की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगते थे। इस बालक को वह क्षण भर के लिए अकेला न छोड़ती थी। उसे साथ लेकर घास छीलने जाती। घास बेचने बाजार जाती, तो बालक गोद में होता। उसके लिए उसने नन्ही-सी खुरपी और नन्ही खांची बनवा दी थी। जियावन माता के साथ घास छीलता और गर्व से कहता - अम्मा, हमें भी बड़ी-सी खुरपी बनवा दो, हम बहुत-सी घास छीलेंगे, तुम द्वारे माची पर बैठी रहना अम्मा, मैं घास बेच लाऊंगा। मां पूछती - हमारे लिए क्या-क्या लाओगे, बेटा? जियावन लाल-लाल साड़ियों का वादा करता। अपने लिए बहुत-सा गुड़ लाना चाहता था। ये ही भोली-भाली बातें इस समय आ-आकर माता के हृदय को शूल के समान बेध रही थी। जो बालक को देखता, वही कहता कि किसी की डीठ है, पर किसकी डीठ है? इस विधवा का भी संसार में कोई बैरी है? अगर उसका नाम मालूम हो जाता, तो सुखिया जाकर उसके चरणों पर गिर पड़ती और बालक को उसकी गोद में रख देती। क्या उसका हृदय दया से न पिघल जाता? पर नाम कोई नहीं बताता। हाय! किससे पूछे? क्या करे?
2
तीन पहर रात बीत चुकी थी। सुखिया का चिंता-व्यथित चंचल मन कोठे-कोठे दौड़ रहा था। किस देवी की शरण जाय, किस देवता की मनौती करे, इसी सोच में पड़े-पड़े उसे एक झपकी आ गई। क्या देखती है कि उसका स्वामी आकर बालक के सिरहाने खड़ा हो जाता है और बालक के सिर पर हाथ फेरकर कहता है - रो मत, सुखिया! तेरा बालक अच्छा हो जायेगा। कल ठाकुरजी की पूजा कर दे, वही तेरे सहायक होंगे। यह कहकर वह चला गया। सुखिया की आंखें खुल गई। अवश्य ही उनके पतिदेव आये थे। इसमें सुखिया को जरा भी सन्देह नहीं हुआ। उन्हें अब भी मेरी सुधि है, यह सोचकर उसका हृदय आशा से परिप्लावित हो उठा। पति के प्रति श्रद्धा और प्रेम से उसकी आंखें सजल हो गई। उसने बालक को गोद में उठा लिया और आकाश की ओर ताकती हुई बोली - भगवान्! मेरा बालक अच्छा हो जाय, तो मैं तुम्हारी पूजा करूंगी। अनाथ विधवा पर दया करो।
उसी समय जियावन की आंखें खुल गई। उससे पानी मांगा। माता ने दौड़कर कटोरे में पानी लिया और बच्चे को पिला दिया।
जियावन ने पानी पीकर कहा - अम्मा, रात है कि दिन?
सुखिया - अभी तो रात है बेटा, तुम्हारा जी कैसा है?
जियावन - अच्छा है अम्मा! अब मैं अच्छा हो गया।
सुखिया - तुम्हारे मुंह में घी-शक्कर, बेटा! भगवान् करे तुम जल्द अच्छे हो जाओ! कुछ खाने को जी चाहता है?
जियावन - हां, अम्मा, थोड़ा-सा गुड़ दे दो।
सुखिया - गुड मत खाओ भैया, अवगुन करेगा। कहो तो खिचड़ी बना दूं?
जियावन - नहीं मेरी अम्मा, जरा-सा गुड़ दे दो, तेरे पैरों पड़ू।
माता इस आग्रह को न टाल सकी। उसने थोड़ा-सा गुड निकालकर जियावन के हाथ में रख दिया। हांडी वहीं छोड़कर वह किवाड़ खोलने चली गई। जियावन ने गुड की दो पिंड़ियां निकाल ली और जल्दी-जल्दी चट कर गया।
3
दिन भर जियावन की तबीयत भली रही। उसने थोड़ी-सी खिचड़ी खायी, दो-एक बार धीरे-धीरे द्वार पर भी आया और हमजोलियों के साथ खेल न सकने पर भी उन्हें खेलते देखकर उसका जी बहल गया। सुखिया ने समझा, बच्चा अच्छा हो गया। दो-एक दिन में जब पैसे हाथ में आ जायेंगे, तो वह एक दिन ठाकुरजी की पूजा करने चली जायेगी। जाड़े के दिन झाडू-बुहारी, नहाने-धोने ओर खाने-पीने में कट गए, मगर जब संध्या समय फिर जियावन का जी भारी हो गया, तब सुखिया घबरा उठी। तुरंत मन में शंका उत्पन्न हुई कि पूजा में विलम्ब करने से ही बालक फिर मुरझा गया है। अभी थोड़ा-सा दिन बाकी था। बच्चे को लिटाकर वह पूजा का सामान तैयार करने लगी। फूल तो जमींदार के बगीचे में मिल गए। तुलसीदल द्वार पर ही था, पर ठाकुर के भोग के लिए कुछ मिष्ठान्न तो चाहिए, नहीं तो गांव को बांटेगी क्या! चढ़ाने के लिए कम-से-कम एक आना तो चाहिए ही। सारा गांव घूम आई, कहीं पैसे उधार न मिले। तब वह हताश हो गई। हाय रे अदिन! कोई चार आने पैसे भी नहीं देता। आखिर उसने अपने हाथों के चांदी के कड़े उतारे और दौड़ी हुई बनिये की दुकान पर गयी, कड़े गिरों रखे, बताशे लिये और दौड़ी हुई घर आयी। पूजा का सामान तैयार हो गया, तो उसने बालक को गोद में उठाया और दूसरे हाथ में पूजा की थाली लिये मंदिर की ओर चली। मंदिर में आरती का घंटा बज रहा था। दस-पांच भक्तजन खड़े स्तुति कर रहे थे। इतने में सुखिया जाकर मंदिर के सामने खड़ी हो गई।
पुजारी ने पूछा - क्या है रे? क्या करने आयी है?
सुखिया चबूतरे पर आकर बोली - ठाकुरजी की मनौती की थी, महाराज, पूजा करने आयी हूं।
पुजारी जी दिन भर जमींदार के असामियों की पूजा किया करते थे, और शाम-सबेरे

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