Ghar Aur Bhahar
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Ghar Aur Bhahar , livre ebook

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Description

Rabindranath Tagore is a song, a colour, and a never-ending saga. He is not a writer in any particular language, but, has kept the common man in different situations. He strongly believed and followed the phrase "The whole world is a family".His Creativity emerged from his soul. Even though he wrote two of India's national songs. he has never been the traditional nationalist. A poet's poet, he is a maker of not only modern Indian literature, but also modern Indian mind and civilization. His world-wide acclaim as a social, political, religious and aesthetic thinker makes him a living presence. He has written many novels, poems and short stories. Our book is also one of his amazing writings.

Informations

Publié par
Date de parution 19 juin 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789352965267
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0106€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

घर और बाहर

 
eISBN: 978-93-5296-526-7
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली-110020
फोन: 011-40712100, 41611861
फैक्स: 011-41611866
ई-मेल: ebooks@dpb.in
वेबसाइट: www.diamondbook.in
संस्करण: 2018
घर और बाहर
लेखक : रवीन्द्रनाथ टैगोर
दो शब्द
दो-दो राष्ट्रगानों के रचयिता रवीन्द्रनाथ टैगोर राष्ट्रवाद के पारंपरिक ढांचे के लेखक नहीं थे। वे वैश्विक समानता और एकांतिकता के पक्षधर थे। ब्रह्मसमाजी होने के बावजूद उनका दर्शन एक अकेले व्यक्ति को समर्पित रहा। चाहे उनकी ज्यादातर रचनाएं बांग्ला में लिखी हुई हों, मगर उन्हें इस आधार पर किसी भाषिक चौखटे में बांधकर नहीं देखा जा सकता। न ही प्रांतवाद की चुन्नट में कसा जाना चाहिए। वह एक ऐसे लोक कवि थे जिनका केन्द्रीय तत्व अंतिम आदमी की भावनाओं का परिष्कार करना था। वह मनुष्य मात्र के स्पन्दन के कवि थे। एक ऐसे कलाकार जिनकी रंगों में शाश्वत प्रेम की गहरी अनुभूति है, एक ऐसा नाटककार जिसके रंगमंच पर सिर्फ ‘ट्रेजडी’ ही जिंदा नहीं है, मनुष्य की गहरी जिजीविषा भी है। एक ऐसा कथाकार जो अपने आस-पास से कथालोक चुनता है, बुनता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि घनीभूत पीड़ा के आवृत्ति करे या उसे ही अनावृत्त करे, बल्कि उस कथालोक में वह आदमी के अंतिम गंतव्य की तलाश भी करता है। वर्तमान की गवेषणा, तर्क और स्थितियों के प्रति रविन्द्रनाथ सदैव सजग रहे हैं। इसी वजह से वह मानते रहे कि सिर्फ आर्थिक उपलब्धियों और जैविक जरूरतें मनुष्य को ठीक स्पंदन नहीं देते। मौलिक सुविधाओं के बाद मनुष्य को चाहिए कि वह सोचे कि इसके बाद क्या है। उत्पादन, उत्पाद और उपभोग की निस्संगता के बाद भी ‘कुछ है जो पहुंच के पार है’। यही कारण है कि रवीन्द्र क्षैतिजी आकांक्षा के लेखक है।
इन तमाम आधारों से रवीन्द्र, कालीदास और कीट्स के समकक्ष ठहरते हैं। उनके वर्षा गीत इस बात के समर्थन में खड़े हैं। ‘प्रक्रिया’ और ‘व्यक्तिवाद’ में आस्था के कारण वे पारंपरिक सिलसिलों में परम्परावादी नहीं हैं। अपने निबंध कला और परंपरा में वह कहते हैं‒
‘कला कोई भड़कीला मकबरा नहीं, विगत के एकाकी वैभव पर गहन चिंतनशील-जीवन के जुलूस को निवेदित, यथार्थ-चेतना है, भविष्य की तीर्थयात्रा पर निकली यथार्थ चेतना, भविष्य जो अतीत से उतना ही अलग है जितना बीज से पेड़। तीर्थों के तमाम बिखरे हुए संदर्भों के बावजूद रवीन्द्र साहित्य पुनरुत्थानावादी नहीं है। वह किसी खांचे में फिट नहीं बैठते। जैसे-
भीड़ से अलग
अपना भाव जगत
टोहा हैं मैंने
चौराहे पर ...।’
चौराहे पर यूं भी मनुष्य मुक्त भाव में रहता है। जिसे शापेनहावर व्यक्तिवाद का संत्रास कहता है। इसके परिष्कार का रवीन्द्रनाथ का तरीका अलग रहा है। वह मानते थे कि व्यक्तियों की अभिव्यक्तियां अलग हो सकती हैं, पर उनकी नियति अलग नहीं हो सकती, उन्हें चाहिए कि वे अपनी हर कृति में उसे शाश्वत की गवेषणा करे, उसका स्पर्श अनुभव करे जो सबका नियति नियंता है। टायनबी इसे रेशीरियलाइजेशन कहते हैं। समझा जा सकता है कि मार्क्स यदि ‘अतिरिक्त’ का भौतिक स्वरूप व्यक्त करते हैं तो रवीन्द्र आधिभौतिक। राबर्ट फ्रास्ट की तरह वह भी मानते हैं कि देवी अतिरेक के स्पर्श से मनुष्य लौकिक यथार्थ के पार चला जाता है।
रवीन्द्र साहित्य पर, उनके मूल्यांकन पर और उनकी मनुष्य की अवधारणा पर काफी काम होना है। संभवतया इसलिए भी कि वैश्विक चेतना का इससे बड़ा कवि और कहीं है नहीं। डायमंड पॉकेट बुक्स और उसके निदेशक श्री नरेन्द्र कुमार सदैव ही हिन्दी के आम पाठकों तक भारतीय भाषा के रचनाकारों को पहुंचाने में सक्रिय रहे हैं। यह सब भी इसी की कड़ी है।
प्रदीप पण्डित
घर और बाहर
विमला की आत्मकथा
ओ मां! आज मुझे याद आ रहा है तुम्हारे माथे का सिंदूर, तुम्हारी चौड़े लाल पाड़ की साड़ी और तुम्हारी शांत, स्निग्ध, गंभीर आंखें। जो कुछ मैंने देखा, वह मेरे हृदय के आकाश में भोर बेला की लालिमा की भांति छा गया। हमारी जीवन की यात्रा उसी स्वर्ण संबल के साथ आरंभ हुई। और उसके बाद? पथ में काले बादल डकैतों की तरह घिर आए। उन्होंने हमारे प्रकाश संबल का एक कण भी नहीं छोड़ा परन्तु जीवन के ब्रह्ममुहूर्त में जो उमा सती का दान मिला था, वह कुसमय में छिना अवश्य किन्तु वह क्या नष्ट हो सकता था?
हमारे देश में सुंदर उसी को कहते हैं जो गौर वर्ण हो किन्तु जो आकाश हमें प्रकाश देता है वह स्वयं नील वर्ण है। मेरी मां श्यामल वर्ण थीं, उनमें पुण्य की दीप्ति थी। उनका रूप, रूप के गर्व को लज्जित करता था।
सब यही कहते हैं कि मैं एकदम मां की तरह दिखती हूं। इसी बात पर बचपन में मैं दर्पण पर क्रोधित हो उठी थी। जैसे उसी ने मेरे सर्वांग के प्रति अन्याय किया हो। मेरी देह का रंग मानो मेरा न हो, वह जैसे किसी और की चीज हो, आरंभ से अंत तक गलत।
सुंदरी तो नहीं थी किन्तु मां की भांति सतीत्व का यश पाने की प्रार्थना देवता से किया करती थी। विवाह तय होते समय मेरे ससुराल से आए ज्योतिषी जी ने मेरा हाथ देख कर कहा था, “यह कन्या सुलक्षणा है, यह सती लक्ष्मी होगी”। सुनकर सभी स्त्रियां कहने लगीं‒
“हां, क्यों नहीं, विमला अपनी मां की तरह तो दिखती है।”
राजा के यहां मेरा विवाह हुआ। बादशाह के समय से उनका यह सम्मान चला आ रहा था। बालपन में राजकुमार की रूपकथा सुनी थी जिससे हृदय-पटल पर एक छवि अंकित हो गई थी। राजा के पुत्र की देह चमेली की पंखुरियों से बनी होगी, युगों-युगों से जो कुमारिकाएं शिवपूजन करती आई हैं उन्हीं की एकाग्र मनोकामनाओं की भांति उनका मुख रचा गया होगा। क्या नयन होंगे, कैसी सुंदर नाक होगी। भीगती हुई नसों की रेखाएं भंवरे के दो पंखों की भांति काली व कोमल होंगी।
स्वामी (पति) के साक्षात् दर्शन हुए तो पाया कि उस कल्पना से कोई मेल नहीं है, उनका रंग भी मेरी तरह ही है। अपने रूप के अभाव का संकोच कुछ कम हुआ किंतु छाती से एक गहरी हूक निकली। अपने रूप के लिए भले ही मारे लज्जा से मर जाती, किंतु हृदय में बसे राजकुमार की छवि तो निहार लेती।
मैं समझती हूं कि नेत्रों के पहरे से दूर भीतर ही भीतर खिलने वाला सौंदर्य अच्छा होता है। तब वह भक्ति रूपी स्वर्ग में जा विराजता है। तब उसे किसी शृंगार की आवश्यकता नहीं रह जाती। मैंने बालपन में देखा है कि भक्ति के सौंदर्य में सब कुछ ही मनोहारी हो उठता है। मां जब सफेद पत्थर की तश्तरी में छिले फलों के टुकड़ों से जलपान संजोती, केवड़े की सुगंध में रचे कपड़े में पान की बीड़े सहेजती, पिताजी भोजन करते तो ताड़ के पंखे से मक्खियां हटाती, तब उस लक्ष्मी स्वरूपा मां का स्नेह व हृदय के अमृतरस की धारा अपरूप सौंदर्य के सागर में जा मिलती थी, यह मैं बालपन से ही समझती आई हूं।
भक्ति का वह सुर क्या मेरे हृदय में न था? अवश्य था। उसमें न तो तर्क था, न भले-बुरे का विवेक, वह एक सुर मात्र था। समस्त जीवन को यदि जीवन विधाता के मंदिर प्रांगण में एक स्तुतिगान के रूप में बज उठने की सार्थकता होती तो, प्रभात के सुर ने अपना काम आरंभ कर दिया था।
आज भी याद है जब मैं सुबह-सुबह पति के चरणों की धूलि सिर से लगाती थी तो ऐसा लगता था मानो मेरा सुहाग सिंदूर शुक्र तारे की भांति झिलमिला उठा हो। एक दिन सहसा आंख खुल जाने पर वह हंसकर बोले-“अरे विमला! क्या कर रही हो?” तब ऐसी लाज आई कि पूछो मत, वह घटना मैं भूली नहीं हूं। उन्होंने शायद सोचा था कि मैं छिप कर पुण्य कमाना चाहती हूं। किंतु न, वह मेरा पुण्य न था, वह मेरा नारी हृदय था, जिसका प्रेम स्वयं ही पूजा करना चाहता था।
हमारा ससुर परिवार अनेक नियम-कायदों से बंधा था। वहां कितनी ही परंपराएं मुगल व पठानों की थीं तथा कितने ही विधान, मनु व पराशर के युग से थे। मेरे स्वामी एकदम निराले थे। अपने वंश में केवल उन्होंने ही विधिवत अध्ययन किया व एम. ए. पास किया। उनसे बड़े दो भाई अल्पायु में चल बसे, उनकी कोई संतान भी न थी। मेरे स्वामी मदिरा नहीं पीते, उनके चरित्र में कोई चंचलता भी नहीं है। इस कुल में यह गुण ही मानो दोष की श्रेणी में आता था। वे लोग मानते थे कि इतनी पवित्रता गरीबों को ही शोभा देती है। कालिमा तारों में नहीं चंद्रमा में ही अधिक होती है।
सास-ससुर की मृत्यु बहुत पहले हो चुकी थी, अतः ददिया सास ही घर की मालकिन थीं। मेरे पति उनकी आंखों के तारे थे, अतः वह परिवार के नियम कानूनों की अवहेलना का साहस रखते थे। जब उन्होंने मिस गिल्बी को मेरी शिक्षिका व संगिनी नियुक्त किया तो सभी को विष वमन का अवसर मिल गया किंतु उनका हठ बना रहा। उन दिनों उन्होंने ‘बी. ए.’ पास कर ‘एम. ए.’ में प्रवेश लिया था। पढ़ाई-लिखाई के कारण वह कलकत्ता में ही रहते थे। वह प्रायः मुझे पत्र लिखते। पत्र की भाषा बेहद सादी व संक्षिप्त होती किंतु मुझे ऐसा प्रतीत होता कि पत्र पर उभरे गोल-सुघड़ अक्षर मुझे एकटक निहार रहे हैं।
एक चंदन के संदूक में मैं उन पत्रों को सहेजती व रोज बाग से फूल लाकर उन पर चढ़ाती। उन दिनों मेरी परीकथाओं का वह राजकुमार अरुणलोक में चन्द्रमा की भांति खो गया था। तब वास्तविक राजपुत्र मेरे हृदयसिंहासन पर आ विराजे थे। मैं राजपुत्र की रानी थी किंतु मेरा सच्चा सुख उनके चरणों में ही था।
मैंने कुछ पढ़ाई-लिखाई की है इसलिए आज की भाषा से परिचित हूं। अपनी ही बातें मुझे कविता जैसी लगती हैं। इस काल से अनजान होती तो मैं उन दिनों उत्पन्न भावों को गव्य मान बैठती, समझती कि कन्या रूप में जन्म पाया है, जैसे यह मेरी गढ़ी कहानी नहीं है वैसे ही स्त्रियों को प्रेम की भक्ति का जामा पहना देती है, यह भी साधारण-सी बात है। इसमें कोई काव्य का गुण है, यह एक क्षण भी न सोचती।
किशोरावस्था से युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते मैं एक नए ही युग में आ पहुंची हूं। जो विश्वास की भांति सहज व साधारण था वह काव्य कला की भांति हो गया? किसी सधवा की पति-भक्ति व विधवा के ब्रह्मचर्य में कैसा कवित्व भरा हो, यह बात प्रतिदिन कही व सुनी जाती है। इसी से जान लें कि सत्य व सुंदर अब एक नहीं रहे। क्या सुंदर की गुहार लगा कर सत्य की वापसी संभव है?
ऐसा नहीं कि प्रत्येक स्त्री का मन एक ही सांचे में ढला होता है, पर मैं इतना जानती हूं कि मेरे मन में मां की तरह भक्ति करने की तीव्र प्यास थी। वही मेरा सहज मनोभाव था किंतु बाहर आते-जाते वह असहज हो उठा है।
मेरा भाग्य ही ऐसा था कि स्वामी मुझे इस भक्ति का अवसर ही नहीं देना चाहते थे। यही उनकी महानता थी। तीर्थ के धनलोलुप पंडित पूजन के लिए कितना जोर डालते हैं क्योंकि वह पूजनीय नहीं होते। संसार में कायर पुरुष ही स्त्री से पूजा करवाना अपना अधिकार समझते हैं। इससे पुजारी व पूज्य दोनों ही अपमानित होते हैं।
किन्तु मेरा इतना आदर क्यों? शृंगार सामग्री, नूतन वस्त्र, दास-दासी द्वारा नित उनके प्रेम का परिचय मिलता। इन सबको एक ओर धकेल कर मैं चरणसेवा का अवसर कैसे पाती? स्वयं पाने की अपेक्षा मेरे लिए देना अधिक आवश्यक था। स्वभाव से ही बैरागी प्रेम तो पथ के दोनों ओर उगे फूलों की भांति होता है। वह सजे-संवरे कक्ष में मिट्टी के टब में अपना सौंदर्य व ऐश्वर्य प्रकट नहीं कर पाता।
अंतःपुर की सभी प्रथाओं को ठुकरा देना मेरे पति के वश के बाहर था। इसलिए दिन-दोपहर उनसे भेंट होना संभव न था। मुझे आने का नियत समय ज्ञात था, अतः हमारा मिलन यूं ही नहीं हो जाता था। वह कविता की भांति छंदमय था। दैनिक कार्यों से निबट कर, स्नान करके, यत्नपूर्वक बाल संवार कर, सुंदर वस्त्र धारण कर व माथे पर सिंदूर सजा कर मैं अपनी देह व मन को संसार से एक ओर हटा कर उस व्यक्ति को समर्पित कर देती। वह समय अल्प होने पर भी अपनी अल्पता के बाद असीम था। उस सुख की होड़ किससे होगी?
मेरे पति प्रायः कहते कि स्त्री-पुरुष के अधिकार समान हैं इसीलिए उनमें प्रेम का संबंध है। इस विषय में मैंने कभी तर्क तो नहीं किया किंतु मेरा मानना था कि भक्ति में मानव की समानता से कोई बाधा नहीं आती। भक्ति मनुष्य को समानता के स्तर पर लाती है। प्रेम की थाली में भक्ति की पूजा आरती के समान है। प्रेम करने वाले दोनों जन पर वह प्रकाश समान

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