Premashram
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Description

It is an attainment for the Hindi Literature that at the very initial times of its journey, it got a deft painter of human mind like Munshi Premchand. As a story writer Munshi Premchand had become a legend in his own life time. The themes of his stories are rooted to the rural life with urban social life appearing as the contrast to illustrate a complete picture of contemporary life. They also effected the foundation of a new philanthropic heritage of welfare of society. His distinctive style and content are deeply steeped in the hardcore of reality. In view of variety of topics, he, as though, has encompassed the entire sky of humane world into his fold, and are generally based upon some inspiration or experience. Each of Munshi Premchand's stories unravels many sides of human mind, streaks of human's conscience, the evils in some societal practices and heterogeneous angles of economic tortures. His stories are the strongest assets of our literature, thus are still relevant today, as much as they were five decades ago. His stories have been translated in almost all the languages of India and world.

Informations

Publié par
Date de parution 10 septembre 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789390287512
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0168€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

प्रेमाश्रम
 

 
eISBN: 978-93-9028-751-2
© लेखकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
P REMASHRAM (N OVEL )
By - Munsi Premchand
प्रेमाश्रम
संध्या हो गई। दिन-भर के थके-मांदे बैल खेत से आ गए हैं। घरों से धुएं के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में आज परगने के हाकिम की परताल थी। गांव के नेतागण दिन भर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे। इस समय वह अलाव के पास बैठे हुए नारियल पी रहे हैं और हाकिमों के चरित्र पर अपना-अपना मत प्रकट कर रहे हैं। लखनपुर बनारस नगर से बारह मील पर उत्तर की ओर एक बड़ा गांव है। यहां अधिकांश कुर्मी और ठाकुरों की बस्ती है, दो-चार घर अन्य जातियों के भी हैं।
मनोहर ने कहा, भाई हाकिम हो तो अंगरेज़, अगर यह न होते तो इस देश वाले हाकिम हम लोगों को पीस कर पी जाते।
दुखरन भगत ने इस कथन का समर्थन किया—जैसा उनका अक़बाल है, वैसा ही नारायण ने स्वभाव भी दिया है। न्याय करना यही जानते हैं, दूध का दूध और पानी का पानी, घूस-रिसवत से कुछ मतलब नहीं। आज छोटे साहब को देखो, मुंह-अंधेरे घोड़े पर सवार हो गए और दिन भर परताल की। तहसीलदार, पेसकार, कानूनगोय एक भी उनके साथ नहीं पहुंचता था।
सुक्खू कुर्मी ने कहा—यह लोग अंगरेज़ों की क्या बराबरी करेंगे? बस खाली गाली देना और इजलास पर गरजना जानते हैं। घर से तो निकलते ही नहीं। जो कुछ चपरासी या पटवारी ने कह दिया, वही मान गए। दिन भर पड़े-पड़े आलसी हो जाते हैं।
मनोहर–सुनते हैं अंगरेज़ लोग घी नहीं खाते।
सुक्खू–घी क्यों नहीं खाते? बिना घी-दूध के इतना बूता कहां से होगा? वह मसक्कत करते हैं, इसी से उन्हें घी-दूध पच जाता है। हमारे देशी हाकिम खाते तो बहुत हैं पर खाट पर पड़े रहते हैं। इसी से उनका पेट बढ़ जाता है।
दुखरन भगत-तहसीलदार साहब तो ऐसे मालूम होते हैं जैसे कोल्हू। अभी पहले आए थे तो कैसे दुबले-पतले थे, लेकिन दो ही साल में उन्हें न जाने कहां की मोटाई लग गई।
सुक्खू–रिसवत का पैसा देह फुला देता है।
मनोहर–यह कहने की बात है। तहसीलदार एक पैसा भी नहीं लेते।
सुक्खू–बिना हराम की कौड़ी खाए देह फूल ही नहीं सकती।
मनोहर ने हंसकर कहा–पटवारी की देह क्यों नहीं फूल जाती, चुचके आम बने हुए हैं।
सुक्खू–पटवारी सैकड़े-हज़ार की गठरी थोड़े ही उड़ाता है। जब बहुत दांव-पेंच किया तो दो-चार रुपए मिल गए। उसकी तनख्वाह तो कानूनगोय ले लेते हैं।
इसी छीनझपट पर निर्वाह करता है, तो देह कहां से फूलेगी? तकावी में देखा नहीं तहसीलदार साहब ने हज़ारों पर हाथ फेर दिया।
दुखरन–कहते हैं कि विद्या से आदमी की बुद्धि ठीक हो जाती है, पर यहां उलटा ही देखने में आता है। यह हाकिम और अमले तो पढ़े-लिखे विद्वान होते हैं, लेकिन किसी को दया-धर्म का विचार नहीं होता।
सुक्खू–जब देश के अभागे आते हैं तो सभी बातें उलटी हो जाती हैं। जब बीमार के मरने के दिन आ जाते हैं तो औषधि भी औगुन करती है।
मनोहर–हमीं लोग तो रिसवत देकर उनकी आदत बिगाड़ देते हैं। हम न दें तो वह कैसे पाएं! बुरे तो हम हैं। लेने वाला मिलता हुआ धन थोड़े ही छोड़ देगा? यहां तो आपस में ही एक-दूसरे को खाए जाते हैं। तुम हमें लूटने को तैयार, हम तुम्हें लूटने को तैयार। इसका और क्या फल होगा?
दुखरन–अरे तो हम मूरख, गंवार, अपढ़ हैं। वह लोग तो विद्यावान हैं। उन्हें सोचना चाहिए कि यह ग़रीब लोग हमारे ही भाई-बंद हैं। हमें भगवान ने विद्या दी है, तो इन पर निगाह रखें। इन विद्यावानों से तो हम मूरख ही अच्छे। अन्याय सह लेना अन्याय करने से तो अच्छा है।
सुक्खू–यह विद्या का दोष नहीं, देश का अभाग है।
मनोहर–न विद्या का दोष है, न देश का अभाग, यह हमारी फूट का फल है। सब अपना दोष है। विद्या से और कुछ नहीं होता तो दूसरों का धन ऐंठना तो आ जाता है। मूरख रहने से तो अपना धन गंवाना पड़ता है।
सुक्खू–हां, तुमने यह ठीक कहा कि विद्या से दूसरों का धन लेना आ जाता है। हमारे बड़े सरकार जब तक रहे दो साल की मालगुज़ारी बाक़ी पड़ जाती थी, तब भी डांट-डपट कर छोड़ देते थे। छोटे सरकार जब से मालिक हुए हैं, देखते हो कैसा उपद्रव कर रहे हैं! रात-दिन जाफ़ा, बेदखली, अख़राज़ की धूम मची हुई है।
दुखरन–कारिंदा साहब कल कहते थे कि अबकी इस गांव की बारी है, देखो क्या होता है?
मनोहर–होगा क्या, तुम हमारे पर खेत चढ़ोगे, हम तुम्हारे खेत पर चढ़ेंगे, छोटे सरकार की चांदी होगी। सरकार की आंखें तो तब खुलतीं जब कोई किसी के खेत पर दांव न लगाता। सब कौल कर लेते। लेकिन यह कहां होने वाला है। सब से पहले तो सुक्खू महतो दौड़ेंगे।
सुक्खू–कौन कहे कि मनोहर न दौड़ेंगे।
मनोहर–मुझसे चाहे गंगाजली उठवा लो, मैं खेत पर न जाऊंगा और जाऊंगा कैसे, कुछ घर में पूंजी भी तो हो। अभी रब्बी में महीनों की देर है और घर में अनाज का दाना नहीं है। गुड़ एक सौ रुपए से कुछ ऊपर ही हुआ है, लेकिन बैल बैठाऊं हो गया है, डेढ़ सौ लगेंगे तब कहीं एक बैल आएगा।
दुखरन–क्या जाने, क्या हो गया कि अब खेती में बरक़्कत ही नहीं रही। पांच बीघे रब्बी बोई थी, लेकिन दस मन की भी आशा नहीं है और गुड़ का तुम जानते ही हो, जो हाल हुआ। कोल्हाड़े में ही विसेसर साह ने तौला लिया। बाल-बच्चों के लिए शीरा तक न बचा। देखें, भगवान कैसे पार लगाते हैं।
अभी यही बातें हो रही थीं कि गिरधर महाराज आते हुए दिखाई दिए। लंबा डील था, भरा हुआ बदन, तनी हुई छाती, सिर पर एक पगड़ी, बदन पर एक चुस्त मिरजई। मोटा-सा लट्ट कंधे पर रखे हुए थे। उन्हें देखते ही सब लोग मांचों से उतर कर ज़मीन पर बैठ गए। यह महाशय ज़मींदार के चपरासी थे। ज़बान से सबके दोस्त, दिल से सबके दुश्मन थे। ज़मींदार के सामने ज़मींदार की-सी कहते थे, असामियों के सामने असामियों की-सी। इसलिए उनके पीठ पीछे लोग चाहे उनकी कितनी ही बुराइयां करें, मुंह पर कोई कुछ न कहता था।
सुक्खू ने पूछा–कहो महाराज, किधर से?
गिरधर ने इस ढंग से कहा, मानों वह जीवन से असंतुष्ट है–किधर से बताएं? ज्ञान बाबू के मारे नाकों दम है। अब हुकुम हुआ है कि असामियों को घी के लिए रुपए दे दो। रुपए सेर का भाव कटेगा। दिन भर दौड़ते हो गया।
मनोहर–कितने का घी मिला?
गिरधर–अभी तो खाली रुपया बांट रहे हैं। बड़े सरकार की बरसी होने वाली है। उसी की तैयारी है। आज कोई 50 रुपए बांटे हैं।
मनोहर–लेकिन बाजार-भाव तो दस छटांक का है।
गिरधर–भाई, हम तो हुक्म के गुलाम हैं। बाजार में छटांक भर बिके, हमको तो सेर भर लेने का हुक्म है। इस गांव में भी 50 रुपए देने हैं। बोलो सुक्खू महतो, कितना लेते हो?
सुक्खू ने सिर नीचा करके कहा, जितना चाहे दे दो, तुम्हारी ज़मीन में बसे हुए हैं, भाग के कहां जाएंगे?
गिरधर–तुम बड़े असामी हो। भला दस रुपए तो लो और दुखरन भगत, तुम्हें कितना दें।
दुखरन–हमें भी पांच रुपए दे दो।
मनोहर–मेरे घर तो एक ही भैंस लगती है, उसका दूध बाल-बच्चों में उठ जाता है, घी होता ही नहीं। अगर गांव में कोई कह दे कि मैंने एक पैसे का भी घी बेचा है तो 50 रुपए लेने पर तैयार हूं।
गिरधर–अरे क्या 5 रुपए भी न लोगे? भला भगत के बराबर तो हो जाओ।
मनोहर–भगत के घर में भैंस लगती है, घी बिकता है, वह जितना चाहें ले लें। मैं रुपए ले लूं तो बाजार में दस छटांक का मोल लेकर देना पड़ेगा।
गिरधर–जो चाहे करो, पर सरकार का हुक्म तो मानना ही पड़ेगा। लालगंज में ३० रुपए दे आया हूं। वहां गांव में एक भैंस भी नहीं है। लोग बाजार से ही लेकर देंगे। पड़ाव में 20 रुपए लिए हैं। वहां भी जानते हो किसी के भैंस नहीं है।
मनोहर–भैंस न होगी तो पास रुपए होंगे। यहां तो गांठ में कौड़ी भी नहीं है।
गिरधर–जब ज़मींदार की ज़मीन जोतते हो तो उसके हुक्म के बाहर नहीं जा सकते।
मनोहर–ज़मीन कोई ख़ैरात जोतते हैं। उसका लगान देते हैं। एक किश्त भी बाक़ी पड़ जाए तो नालिश होती है।
गिरधर–मनोहर, घी तो तुम दोगे दौड़ते हुए, पर चार बातें सुनकर। ज़मींदार के गांव में रहकर उससे हेकड़ी नहीं चल सकती। अभी कारिंदा साहब बुलाएंगे तो रुपए भी दोगे, हाथ-पैर भी पड़ोगे, मैं सीधे कहता हूं तो तेवर बदलते हो।
मनोहर ने गर्म होकर कहा–कारिंदा कोई काटू है, न ज़मींदार कोई हौवा है। यहां कोई दबेल नहीं है। जब कौड़ी-कौड़ी लगान चुकाते हैं तो धौंस क्यों सहें?
गिरधर–सरकार को अभी जानते नहीं हो। बड़े सरकार का ज़माना अब नहीं है। इनके चंगुल में एक बार आ जाओगे तो निकलते न बनेगा। मनोहर की क्रोधाग्नि और भी प्रचंड हुई। बोला, अच्छा जाओ, तोप पर उड़वा देना। गिरधर महाराज उठ खड़े हुए। सुक्खू और दुखरन ने अब मनोहर के साथ बैठना उचित न समझा। वह भी गिरधर के साथ चले गए। मनोहर ने इन दोनों आदमियों को तीव्र दृष्टि से देखा और नारियल पीने लगा।
2
लखनपुर के ज़मींदारों का मकान काशी में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खंड आमने-सामने बने हुए थे। एक ज़नाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खंडों के बीच की ज़मीन बेल-बूटे से सजी हुई थी। दोनों ओर ऊंची दीवारें खींची हुई थीं; लेकिन दोनों ही खंड जगह-जगह टूट-फूट गए थे। कहीं कोई कड़ी टूट गई थी और उसे थूनियों के सहारे रोका गया था, कहीं दीवार फट गई थी और कहीं छत धंस पड़ी थी–एक वृद्ध रोगी की तरह, जो लाठी के सहारे चलता हो। किसी समय यह परिवार नगर में बहुत प्रतिष्ठित था, किंतु ऐश्वर्य के अभिमान और कुल-मर्यादा पालन ने उसे धीरे-धीरे इतना गिरा दिया कि अब मोहल्ले का बनिया पैसे-धेले की चीज़ भी उनके नाम पर उधार न देता था। लाला जटाशंकर मरते-मरते मर गए, पर जब घर से निकले तो पालकी पर। लड़के-लड़कियों के विवाह किए तो हौसले से। कोई उत्सव आता तो, हृदय सरिता की भांति उमड़ आता था, कोई मेहमान आ जाता तो उसे सर-आंखों पर बैठाते, साधु-सत्कार और अतिथि-सेवा में उन्हें हार्दिक आनंद होता था। इसी मर्यादा-रक्षा में ज़ायदाद का बड़ा भाग बिक गया, कुछ रेहन हो गया और अब लखनपुर के सिवा चार और छोटे-छोटे गांव रह गए थे, जिनसे कोई चार हज़ार वार्षिक लाभ होता था।
लाला जटाशंकर के एक छोटे भाई थे। उनका नाम प्रभाशंकर था। यही सियाह और सफ़ेद के मालिक थे। बड़े लाला साहब को अपनी भागवत और गीता से परमानुराग था। घर का प्रबंध छोटे भाई के हाथों में था। दोनों भाइयों में इतना प्रेम था कि उनके बीच में कभी कटू वाक्यों की नौबत न आई थी। स्त्रियों में तू-तू मैं-मैं होती थी, किंतु भाइयों पर इसका असर न पड़ता था। प्रभाशंकर स्वयं कितना ही कष्ट उठाएं, अपने भाई से कभी भूल कर शिकायत न करते थे। जटाशंकर भी उनके किसी काम में हस्तक्षेप न करते थे।
लाला जटाशंकर का एक साल पूर्व देहांत हो गया था। उनकी स्त्री उनके पहले ही मर चुकी थी। उनके दो पुत्र थे, प्रेमशंकर और ज्ञानशंकर। दोनों के विवाह हो चुके थे। प्रेमशंकर चार-पांच वर्षों से लापता थे। उनकी पत्नी श्रद्धा घर में पड़ी उनके नाम को रोया करती थी। ज्ञानशंकर ने गत वर्ष बी०ए० की उपाधि प्राप्त की थी और इस समय हारमोनियम बजाने में मग्न रहते थे। उनके एक पुत्र था, मायाशंकर। लाला प्रभाशंकर की स्त्री जीवित थी। उनके तीन बेटे और दो बेटियां। बड़े बेटे दयाशंकर सब इंस्पेक्टर थे। विवाह हो चुका था। बाकी दोनों अभी मदरसे में अंग्रेज़ी पढ़ते थे। दोनों पुत्रियां भी कुंवारी थीं।
प्रेमशंकर ने बी०ए० की डिग्री लेने के बाद अमेरिका जा कर आगे पढ़ने की इच्छा की थी, पर जब अपने चाचा को इसका विरोध करते देखा तो एक दिन चुपके से भाग निकले। घर वालों से पत्र-व्यवहार करना भी बंद कर दिया। उनके पीछे ज्ञानशंकर ने बाप और चाचा से लड़ाई ठानी। उनकी फजूलखर्चियों की आलोचना किया करते। कहते, क्या आप हमारे लिए कुछ भी नहीं छोड़ जाएंगे? क्या आपकी यह इच्छा है कि हम रोटियों को मोहताज़ हो जाएं? किंतु इसका जवाब यही मिलता, भाई हम लोग तो जिस प्रकार अब तक निभाते आए हैं उसी प्रकार निभाएंगे। यदि तुम इससे उत्तम प्रबंध कर सकते हो तो करो, ज़रा हम भी देखें। ज्ञानशंकर उस समय कॉलेज में थे, यह चुनौती सुन कर चुप हो जाते थे। पर जब से वह डिग्री लेकर आए

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