Raj Singh
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Description

Bankim Chandra Chatterjee, also known as Bankim Chandra Chattopadhyay, was a great poet, writer, and journalist. Born on June 27, 1838, in West Bengal's Kantalpara village, he did his schooling from Midnapur. He graduated from Mohsin College at Hoogly. He is most famous for penning down Vande Mataram, which is later adapted to as India's national song.Bankim Chandra Chatterjee was a voracious reader and was especially interested in Sanskrit literature. He got admission in the Presidency College in Calcutta in 1856. After completing his education, he joined government service and retired in 1891.Bankim Chandra Chatterjee was adept at both verse and fiction. He shot into the limelight with Durgeshnandini, his first Bengali romance, published in 1865. He then went on to write other famous novels like Kapalkundala in 1866, Mrinalini in 1869, Vishbriksha in 1873, Chandrasekhar in 1877, Rajani in 1877, Rajsimha in 1881 and Devi Chaudhurani in 1884. He brought out a monthly magazine called Bangadarshan in 1872.His most famous novel is Anand Math, published in 1882, featuring the famous song Vande Mataram. Anandamath tells a story about an army of Brahmin ascetics fighting Indian Muslims in the pay of the East India Company. The book called for unity among the Hindus and Muslims. His famous song Vande Mataram was set to music by none other than Rabindranath Tagore.

Informations

Publié par
Date de parution 01 janvier 0001
Nombre de lectures 0
EAN13 9789352967711
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0158€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

राजसिंह और राजमोहन की स्त्री

 
eISBN: 978-93-5296-771-1
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि .
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली-110020
फोन: 011-40712200
ई-मेल: ebooks@dpb.in
वेबसाइट: www.diamondbook.in
संस्करण: 2019
राजसिंह और राजमोहन की स्त्री
बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय
राजसिंह
1
“ऐसा कहना आपको शोभा नहीं देता । परोपकार के लिए कोई यूं ही सब कुछ दांव पर नहीं लगा देता । प्रताप तथा संग्राम जैसे वीर आज न सही पर क्या राजसिंह को तुम भूल गई जो तुम्हारे लिए जान की बाजी लगा देंगे । इससे क्या? बाहुबल होते हुए कौन राजपूत शरणागत की रक्षा नहीं करता । मैं भी यही सोच रही थी । मैं उनकी शरण में जाऊं तब क्या वह मेरी रक्षा न करेंगे?”
रूपनगर राजस्थान के पर्वतीय प्रदेश में एक छोटा-सा राज्य था । राज्य छोटा हो या बड़ा, उसका एक-न-एक राजा होना आवश्यक है । इस छोटे-से राज्य का विक्रम सिंह नाम का राजा था । राजा विक्रम सिंह का और भी परिचय देना आवश्यक है । छोटा-सा सुन्दर राज्य, छोटी-सी राजधानी । इसी इच्छा को लेकर विक्रम सिंह के अन्त:पुर में चल रहे हैं । इसी महल में एक कमरा बड़े ही मनमोहक ढंग से सजाया गया है । उसका फर्श काले-सफेद पत्थरों से बनाया गया है, जो कालीन-सा लगता है । कमरे की सफेद पत्थरों से बनी हुई दीवारों में रत्न जड़े हैं । उस समय मयूर-सिंहासन का ही चलन था । उसी के अनुसार घर की दीवारों पर सफेद रंग के पक्षी निराले ढंग से लताओं पर बैठकर, फूलों पर पूंछ रखकर, फल खाते हुए दिखाये गए हैं । फर्श पर बिछे हुए गलीचे पर कुछ स्त्रियां बैठी हैं । कोमलांगी स्त्रियां अनेकों वस्त्र तथा रत्नजड़ित आभूषणों से सुशोभित हैं । वे अपने सौन्दर्य से मोतियों का उपहास करके मानो उन्हें लज्जित कर रही हैं । प्रत्येक युवती कोई न-कोई हंसी-मजाक करती हुई महफिल सजाए हुए है । खूब चहल-पहल है । युवतियों के हंसने का कारण एक बूढ़ी औरत है जो चित्र बेचती है । बुढ़िया चित्र बेचने के अभिप्राय से एक-एक चित्र को कपड़े से निकाल उन्हें दिखलाती है और वे उसके विषय में पूछती हैं । उन चित्रों का लेकर उनके मन में बड़ी जिज्ञासा है ।
उस वृद्धा ने एक चित्र निकाला तो एक स्त्री ने पूछा-"यह चित्र किसका है अम्मा!”
बुढ़िया ने कहा-“शाहजहां का । यह एक मुगल बादशाह था ।”
युवती ने झिड़का-“हट बुढ़िया, यह दाढ़ी तो मेरे बाबा की है ।”
तब दूसरी ने ठिठोली की-"वाह! क्या बात है! बाबा का नाम क्यों लेती हो! यह क्यों नहीं कहती तेरे पति की है! इस दाढ़ी में तो बिच्छू छिपा था, जिसे मेरी सहेली ने झाडू से मारा डाला ।”
हंसी-दिल्लगी की तो यहां धूम थी ही, इस बात से हंसी की एक लहर और फैल गई । बुढ़िया ने एक और चित्र दिखाकर कहा-"बादशाह जहांगीर का चित्र है ।”
चित्र देखकर युवती ने पूछा-"क्या दाम है?”
बुढ़िया ने दाम अधिक बतलाये ।
युवती ने कहा-"ये तो तस्वीर के दाम हुए । वास्तव में नूरजहां ने इसे कितने में खरीदा?”
बुढ़िया भी जरा दिल्लगी के मूड में आ गई और बोली-"बिना मोल ।”
युवती ने कहा-"अगर असल की ये कीमत है तो कुछ दक्षिणा देकर ये चित्र हमें दे जाओ ।”
चारों ओर से हंसी का फव्वारा फूट पड़ा । बुढ़िया घबराकर चित्र समेटने लगी और कहने लगी-"हंसी-दिल्लगी से भी कभी कहीं सौदा होता है । जब राजकुमारी आवेगी तभी ही चित्र दिखलाऊंगी ।” तब एक बोली-"ओ बूढ़ी! मैं ही राजकुमारी हूं ।” बुढ़िया घबरा कर चारों ओर देखने लगी । हंसी और बढ़ गई । तभी अचानक हंसी का तूफान थम गया । सभी एक-दूसरे को देखने लगीं । बुढ़िया ने ज्योंही गर्दन घुमाकर कारण जानना चाहा तो एक रूपसी को खड़ा पाया ।
बुढ़िया एकटक उस सौंदर्य की मूर्ति को देखती हुई सोचने लगी कि यह कोई सौन्दर्य की अनुपम रचना है या फिर पाषाण की कोई जीवित मूर्ति है । अधिक अवस्था के कारण बुढ़िया के नेत्रों की रोशनी कुछ कम पड़ गयी थी, फिर भी वह इतना तो अवश्य जान गई कि इतना सुन्दर शरीर निर्जीव का नहीं होता, पत्थर की तो क्या बिसात फूलों में भी ऐसा सौन्दर्य ढूंढने से नहीं मिलता । तभी बुढ़िया की ऐसा अनुभव हुआ जैसे वह अत्यन्त अनुपम मूर्ति उसकी ओर देखकर मुस्करा रही है । बुढ़िया की समझ मैं कुछ न आया तो उसने हांफते-हांफते रमणियों की ओर देखकर कहा-"हां, तो तुम लोग कुछ बतलाओ ना ।”
बढ़िया का इतना कहना था कि हंसी का फव्वारा फिर फूट निकला । बुढ़िया घबराकर रो पड़ी । तब वह रूपसी बोली-“अरे! रोती क्यों हो?”
तब बुढ़िया को मालूम हुआ कि यह गढ़ी हुई मूर्ति नहीं, बल्कि राजकुमारी है । तभी उस बुढ़िया ने उस अपार सुन्दरता को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया, ऐसा सौन्दर्य जो प्रत्येक को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है । बुढ़िया द्वारा प्रणाम किये जाने वाली वह रूपसी रूपनगर के राजा विक्रम सिंह सोलंकी की कन्या चंचल कुमारी है और सब सहेलियां, जो वृद्धा के साथ चुहल में व्यस्त थीं, उसकी दासियां हैं। उनके कक्ष में प्रवेश कर राजकुमारी भी इस चुहलबाजी का आनन्द ले मुस्करा रही थी । तभी बुढ़िया के रोने पर उससे उसका परिचय पूछती है ।
राजकुमारी की सखियां वृद्धा का परिचय देती हैं तथा अब तक हुई हंसी-मजाक की हर बात राजकुमारी को बतलाती हैं । जिस युवती ने झाडू वाला उपहास किया था वह कहने लगी-"यह पुराने बादशाहों की तस्वीरें लेकर आई है । ये तो हमारे पास हैं ।”
वृद्धा बोली-“एक होने पर क्या दूसरी नहीं खरीदी जाती?”
तब राजकुमारी ने वृद्धा से तस्वीरें पुनः दिखलाने को कहा । उसने सब तस्वीरें दिखलायी । नूरजहां बेगम, अकबर, जहांगीर की । बोली-"ये तो सब हमारे पास हैं । कुछ हिन्दू राजाओं की दिखलाओ ।” तब वृद्ध ने राजा मानसिंह, बीरबल, राजा जयसिंह के चित्र दिखलाये । राजकुमारी ने कहा-"ये सब तो मुगल बादशाहों के चाकर हैं ।”
तब वृद्धा ने और चित्र दिखलाये । राजकुमारी ने राजा अमर सिंह, राणा प्रताप, करण सिंह तथा जसवन्त सिंह के चित्र पसन्द किए । वृद्धा ने एक चित्र कपड़े के आवरण में ही रहने दिया । राजकुमारी ने जब उसे भी दिखलाने का आग्रह किया तो बुढ़िया असमंजस में पड़ गई और निवेदन किया-"मुझे क्षमा करो, यह तस्वीर भूल से चित्रों के साथ आ गई ।”
बुढ़िया ने बतलाया-“यह आपके दुश्मन राजा राजसिंह की तस्वीर है ।” राजकुमारी ने हंसकर कहा-"वीर पुरुष स्त्रियों के कभी शत्रु नहीं होते । दिखाओ मैं यह चित्र अवश्य खरीदूंगी ।” राजकुमारी सहित उसकी सब सखियों ने चित्र की प्रशंसा की । अवसर अच्छा पाकर वृद्धा ने चित्र के काफी दाम कमाए । तभी बुढ़िया ने एक और चित्र दिखाकर कहा, “आज बादशाह आलमगीर के समान भी कोई वीर है, इस पृथ्वी पर इतना कहकर वृद्धा ने चित्र राजकुमारी को दे दिया ।
राजकुमारी ने उसे भी खरीद लिया और एक दासी को चित्रों का दाम चुकाने को कहा । इतने में राजकुमारी को ठिठोली सूझी । उस सखियों से कहा-"आओ जरा आनन्द लें ।”
सखियों ने कहा-"बतलाओ कैसे?”
राजकुमारी ने कहा-"मैं यह चित्र बादशाह आलमगीर का पृथ्वी पर रखती हूं । तुम सभी इस चित्र पर पैर मारो । देखूं किसके प्रहार इसकी नाक टूटती है ।” यह सुन सभी सखियों की हंसी का फव्वारा भय से सूख गया । एक ने कहा-“ऐसा न कहो । चिड़िया भी सुन लेगी तो रूपनगर की गढ़ी का पत्थर शेष नहीं रहेगा ।”
राजकुमारी ने हंसकर चित्र धरती पर रख दिया और पूछा-"कौन लात मारेगा । जब कोई आगे न बढ़ा तो राजकुमारी की एक सहेली ने आकर उसका मुंह बन्द कर दिया और हंस कर कहा-"अब और कुछ कहना राजकुमारी!” राजकुमारी ने अपना बायां पांव चित्र पर रखा । भड़-भड़ के शब्द के साथ ही चित्र पैर के दबाव से टूट गया ।
“कैसा गजब हुआ! हाय यह क्या किया! कहकर सखियां थरथराकर रह गयीं ।”
राजकुमारी न कहा-"जैसे लड़कियां गुड़िया से खेलकर गृहस्थी की सुप्त इच्छा मिटाती हैं, वैसे मैंने मुगल बादशाह के मुंह पर पैर मारने की इच्छा पूरी की है ।” बात पूरी न हुई थी कि निर्मल सखी ने उसका मुंह बन्द कर दिया । पर बात सबकी समझ में आ गई । बुढ़िया का तो कलेजा कांप कर रह गया ।
तस्वीरों का मूल्य पाते ही बुढ़िया प्राण बचाकर भागी । तभी निर्मल अशर्फी हाथ में लिए उसके पीछे आई और चित्र तोड़ने वाली बात का वर्णन न करने के लिए बुढ़िया को कहा । वृद्धा मान गयी ।
अगले दिन चंचल कुमारी खरीदे हुए चित्रों को अकेली बैठी ध्यान से देख रही थी तभी उसकी सखी निर्मल आती है । उसे देख राजकुमारी पूछती है-"भला तुम किससे विवाह करना पसन्द करती हो?”
निर्मल ने कहा-"पर उसे तो आपने प्रहार कर तोड़ डाला है ।”
चंचल-"औरंगजेब से ।”
निर्मल-"तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?”
चंचल-"वह तो बहुत चतुर है । ऐसा धूर्त कभी इस धरती पर पैदा न होगा ।”
निर्मल-"ऐसे को ही वश में करने में मजा है । याद नहीं, मैंने शेर पाला था । एक-न-एक दिन औरंगजेब से विवाह भी कर लूंगी ।”
“पर वह तो मुसलमान है ।” चंचल ने बतलाया ।
निर्मल-"तब क्या हुआ, मैं नहीं बोलती, मैं उसे हिन्दू बना लूंगी ।”
चंचल ने चिढ़कर कहा-"जा मर ।”
निर्मल-"इससे कुछ अन्तर नहीं पड़ता । पहले यह बतलाओ, किसका चित्र है, जिसे तुम बार-बार देखती हो -यह जानकर ही मरूंगी । राजकुमारी चार-पांच चित्रों को शीघ्रता से उठाकर अपने हाथ के चित्र में मिलाकर बोली-कौन-सा मैं बार-बार देख रही हूँ? क्या तुम्हें कलंक लगा कर ही सन्तोष मिलता है?”
निर्मल ने मुस्कुराकर कहा-"इसमें कलंक की क्या बात है? तुमने खुद ही क्रोध कर सारा भेद खोल दिया ।”
तब राजकुमारी ने कहा-"वह अकबर बादशाह का चित्र है ।”
निर्मल- “अकबर के नाम पर तो राजपूतानी पकती हैं । वह तो नहीं है । तब निर्मल चित्र देखने लगी । बोली-"उस चित्र की पीठ पर काला तिल है ।” तब उसने राजसिंह का चित्र निकाल लिया । देखकर कहने लगी-"इस बूढ़े के चित्र में तूने क्या पाया है?”
चंचल-"बूढ़ा है? तेरी आंखें कमजोर हैं ।”
निर्मल चंचल को बराबर छेड़ रही थी । उसका यूं बिगड़ना देख वह बेतरह हंसने लगी । निर्मल सुन्दर तो थी ही, उन्मुक्त हंसी के कारण उसका सौन्दर्य और खिल उठा । उसने हंस कर कहा-"चित्र में बूढ़ा न सही पर सुना है उसकी अवस्था अधिक है।”
“यह राणा का ही चित्र है, इसे अच्छी तरह से कौन जानता है?”
“कल चित्र खरीदा, आज कुछ जानती ही नहीं । अवस्था भी अधिक हो चुकी है, इतना सुन्दर भी नहीं । फिर इस चित्र में ऐसी क्या बात है?”
तब चंचल एक कविता गुनगुनाकर अपने मन का भाव प्रकट करती है-
गोरी जाने भस्ममार प्यारी जाने काला शचि जाने सहस्त्र लोचन वीर जाने वीरबाला। गंगा गरजे आए जटा धरणी बैठे वासुकि फन में, पवन बने तो अग्नि सखा वीर रहेगा युवती मन में ।।
“देखती हूं, तू अपने लिए परेशानी मोल ले रही है । राजसिंह को जपा है तो क्या वह तुम्हें मिल सकेगा?” निर्मल ने पूछा ।
चंचल-"क्या पाने के लिए चाहा जाता है? तूने क्या पाने के लिए औरंगजेब को चुना है ।”
निर्मल बोली-"मेरी साध इस जन्म में खाली ही सही, क्या तेरी साध पूरी हो सकेगी?”
चंचल ने कहा-“मेरी भी गृहस्थी की साध शायद इस जन्म में अपूर्ण ही रह जाएगी ।” इसी तरह चित्र पर बातें करते हुए दोनों एक-दूसरे को छेड़ती रहीं ।
राजकुमारी के मन में राणा राजसिंह की तस्वीर बस गई । पर चंचल के मन में जो भी हो, उसने मुगल बादशाह की तस्वीर को पांवमार कर अच्छा नहीं किया । उसका यही कार्य आगे चलकर उसके लिए एक मुसीबत बन जाएगा ।
बुढ़िया रूपनगर में चित्र बेचने के बाद अपने नगर आगरा पहुंची । घर आकर देखा कि उसका पुत्र आया हुआ है । उसकी दिल्ली में तस्वीरों की प्रसिद्ध दुकान थी । बड़े ही गलत समय पर बुढ़िया चित्र बेचने रूपनगर गई थी । वहां की राजकुमारी का जो साहस वह देख आई थी उसे किसी से कहने के लिए उसका मन मचल उठा था । अगर निर्मल कुमारी उसे इनाम देकर इस बात के कहने की मनाही न करती तो शायद वह इतना परेशान न होती । बुढ़िया का दिन का खाना और रात की नींद हराम हो गई । उससे न कहते बनता था और बिना कहे उसका मन बेचैन था क्योंकि वह निर्मल कुमारी से वचनबद्ध होकर आई थी । बिना कहे उसका मन व्याकुल हुआ जा रहा था । अगर किसी से कहकर अपने मन को बोझ हल्का करती है तो इससे चंचल कुमारी का अनिष्ट होने की प्रबल सम्भावना है । उसका हाल सांप और छछूंदर के समान है । जब उसका ब

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