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Description
Informations
Publié par | Diamond Books |
Date de parution | 01 janvier 0001 |
Nombre de lectures | 0 |
EAN13 | 9789352965960 |
Langue | English |
Informations légales : prix de location à la page 0,0158€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.
Extrait
रजनी
eISBN: 978-93-5296-596-0
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि .
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली-110020
फोन: 011-40712200
ई-मेल: ebooks@dpb.in
वेबसाइट: www.diamondbook.in
संस्करण: 2019
रजनी
लेखक : बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय
“मैं जिस दिन गंगा में डूबकर मरने गई थी तो लोगों ने पकड़ लिया। वह सब सिर्फ शचीन्द्र की खातिर। अगर तुम कहतीं-तू अंधी है-तुझे मैं आंखें दूंगी, फिर भी मैं मना कर देती-मैं सिर्फ शचीन्द्र को प्राप्त करना चाहती। इस संसार में शचीन्द्र के अलावा और कुछ नहीं है। मेरे प्राण उनके पास हैं। मैं तो मात्र देवता के फूल की कली हूं जो उनके चरणों में जगह पाने से ही सफल बनूंगी। तुम क्या सुनोगी अंधी के दुःख की बातें!”
रजनी रोती हुई बोली-"अगर आपने वर्षों तक डाका डाला हो, सैकड़ों ब्रह्म हत्या की हो, गो हत्या, स्त्री हत्या की हो, फिर भी मेरे लिए आप देवता हैं। अगर आप मुझे अपने चरणों में जगह दें तो मैं आपकी सेविका रहूंगी। पर मैं आपके लायक नहीं हूं।"
अनुक्रमणिका रजनी इंदिरा
रजनी
प्रथम खण्ड
(रजनी की जबानी)
पहला परिच्छेद
हमारे सुख-दुःख की समानता तुम लोगों के सुख-दुःख के समान नहीं हो सकती। हम दोनों अलग-अलग प्रकृति के हैं। तुम हमारे सुख में सुखी नहीं रह सकतीं। मैं सिर्फ एक जूही की सुगन्ध से ही प्रसन्न रह सकती हूं। लेकिन सैकड़ों सितारों के मध्य भी मैं पूर्ण रूप बनकर प्रसन्न नहीं हो सकती। क्या तुम मेरी दास्तान ध्यान से सुनोगे? मैं जन्म से अंधी हूं।
समझोगे कैसे? तुम लोग जीवन में सब कुछ देख सकते हो-पर मेरे जीवन में अंधेरा है। यही कष्ट है कि मैं इस अंधेरे नाम को जानती नहीं। मेरी अच्छी आंखों की रोशनी वही है। तुम लोगों की रोशनी कैसी होती है, मैं नहीं जानती?
परन्तु मैं मात्र इतनी ही दु:खी हूं? ऐसी बात नहीं है। करीब एक जैसा ही दुःख है मेरा और तुम्हारा। तुम शक्ल देखकर प्रसन्न हो, मैं शब्द सुनकर।
देखो, ये छोटे-छोटे फूलों की डंडी कितनी छोटी और पतली है और मेरे हाथ में पकड़ी हुई सुई की नोंक इससे भी छोटी है। इसी सुई की नोंक से फूल पिरोती हूं मैं-फूलों की मालाएं बचपन से गूंथ रही हूं-किसी ने भी कभी यह नहीं कहा कि यह माला किसी अंधी द्वारा बनाई गयी है।
मैं माला गूंथने का काम किया करती थी। मेरे पिता का बालीगंज के एक किनारे पर एक बाग लगाया हुआ था-उनकी आमदनी उसी से होती थी। फाल्गुन के महीने में जब तक फूल खिलते रहते, मेरे पिता रोज लाकर दे दिया करते थे और मैं माला गूंथ दिया करती थी। पिताजी उसे घूम-घूम कर बेच दिया करते थे। घर का कामकाज मां करती। समय मिलने पर मां-बाप दोनों माला बनाने में मेरी मदद करते थे।
पुष्पों का स्पर्श बहुत आनंददायक है-पहनने में तो और भी अच्छा लगता है-खुशबू में भी आनन्दप्रद होता ही है। पर केवल फूल बनाने से ही घर नहीं चल पाता-अनाज के पौधों में पुष्प नहीं होते, इसलिए पिता बहुत ही गरीब थे। हम लोग मिर्जापुर-मुहल्ले में एक झुग्गी में रहते थे। मैं उसी में एक कोने में फूलों का ढेर लगाकर माला गूंथने बैठती थी। पिता बाहर चले जाते तो मैं गीत गुनगुनाती-
“इतनी साध का हुआ सबेरा,
पर खिली न दिल की कली।”
हे ईश्वर! मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हुई। मैं स्त्री हूं या पुरुष? जो अभी तक नहीं समझे हैं उन्हें न बताना ही ठीक है। अभी मैं कुछ नहीं बताऊंगी। अंधा औरत हो या पुरुष बहुत अड़चन होती है। मेरी भी शादी अंधी होने के कारण नहीं हुई। इसे दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य-वही समझ सकता है, जिसके आंखें न हो । मेरे चिरकौमार्य की बात सुनकर कई चंचल कटाक्षधारिणी कहतीं-“हाय! मैं भी अगर अंधी होती।”
शादी न हो-मुझे इसका दुःख नहीं है। मैं स्वयंवरा हूं। पिताजी से एक रोज मैंने कलकत्ता के बारे में सुना था कि मॉरमेंट (विक्टोरिया की स्मृतिमूर्ति) बहुत भारी वस्तु है-बड़ी ऊंची, अटल, अचल-अंधी में टूटता नहीं, गले में चैन-अनोखे बाबू। बस मैंने मॉनूमेंट से मन-ही-मन शादी कर ली। मेरे पति से बड़ा कौन है? मैं स्वयं मॉनूर्मेट महारानी हूं।
सिर्फ एक ही शादी नहीं। मैंने जब मॉनूमेंट से शादी की थी उस वक्त मेरी उम्र पन्द्रह वर्ष की थी। अब सत्रह वर्ष की उम्र में बताते शर्म आती है, सधवा उम्र में एक और शादी कर ली। हमारे घर के पास कालीचरण वसु नामक एक कायस्थ रहते थे। उनकी चीना बाजार में एक खिलौने की दुकान थी। वह भी कायस्थ थे, इसलिए कुछ घनिष्ठता हो गई। कालीचरण का चार साल का बच्चा था-वामाचरण। वामाचरण रोज हमारे घर में आता था। एक दिन हमारे घर के सामने से एक दूल्हा गाजे-बाजे के साथ निकला। वामाचरण ने उसे देखकर पूछा-“ए। ‘ऊ’ का है।”
मैंने बताया-“वर” बस, वामाचरण जिद करने लगा-मैं वल बनूंगा ।” वह किसी भी तरह नहीं समझा तो मैंने कह दिया-“मत रो मेरा वर तू है ।” कहकर मैंने उसके हाथ में एक संदेश दिया और पूछा-“क्या तुम वर बनोगे?” बालक ने संदेश हाथ में लेकर रोना बन्द कर दिया और बोला, “हां ।”
बच्चा कुछ देर चुप रहा फिर बोला-“ए जी! क्या करता है वल?” लगता है उसे पूरा यकीन हो गया कि शायद वर संदेश ही खाता है । अगर ऐसा हो तो एक और खाने के लिए तैयार हो रहा था । मैंने उसके विचार को समझकर कहा-“वर फूल बना देता है ।” वामाचरण वर का फर्ज समझकर मुझे फूल उठा-उठाकर हाथों में देने लगा । उसी दिन से मैं उसे वर कहने लगी और वह मुझे फूल उठा-उठाकर देने लगा ।
इस प्रकार मेरे दो विवाह हुए । अब मैं आजकल की जटिल-कुटिलताओं से मालूम करना चाहती हूं कि क्या मैं सती नहीं कहला पाती ।
दूसरा परिच्छेद
बड़े घरों के लिए फूलों की व्यवस्था करना बहुत मुश्किल है । मालिन मौसी उस समय राजबाड़ी में फूलों की व्यवस्था करते-करते मसान पर चली गई । फूल बेचने पर फायदा हुआ विद्यासुन्दर को और हीरा मालिन ने चपत खायी-क्योंकि वह बड़े घर में फूल देती थी । विद्यासुन्दर के लिए बहुत फायदा रहा परन्तु मालिन घाटे में ही रही ।
मेरे पिता फूलों के शौकीन घरों में, ‘बेला के फूल’ नाम से फूल बेचा करते थे, और मां अशौकीन एक-दो घरों में रोज फूल देती थी-उनमें एक रामसदय मित्र का घर प्रमुख था । रामसदय मित्र के यहां साढ़े चार घोड़े थे । नातियों के लिए एक बछेड़ा और चार अदद घोड़े । डेढ़ गृहिणी थी ।
एक पूरी गृहिणी-एक बुद्धा-उनका नाम भुवनेश्वरी है-पर मुझसे उनका नाम राममणि ही आता है क्योंकि उनके गले में सांय-सांय सुनती हूं तो और कोई नाम ही नहीं निकलता ।
जो पूरी गृहिणी है-लवंगलता नाम है । लोग उन्हें लवंगलता कहते हैं परन्तु उनके पिता ने नाम ललित लवंगलता रखा था । उसे रामसदय बाबू ‘ललित लवंगलता-परिशीलन कोमलमलय समीरे, कहकर प्रेम से बुलाया करते थे । लवंगलता उन्नीस वर्ष की जवान थी । वह दूसरी शादी की पत्नी थी । रामसदय के लिए वह सन्दूक की चाबी, बिछौने की चादर, पान का चूना और गिलास का पानी थी । ज्वर की कुनैन, खांसी की इपिका, वायु में फ्लानेल और आरोग्य में शोरका थी ।
मैंने लवंगलता को कभी नहीं देखा, पर वह बहुत सुन्दर है, ऐसा सुना था । उसके गुण के बारे में भी सुना था-गृहकार्य में निपुण, दान में मुक्तहाथ, मन की सच्ची, सिर्फ बोलने में कड़वी है । लवंगलता में खासकर एक गुण यह भी है कि वह अपने दादा के समान उम्र के पति से प्यार करती है-कोई नवयुवती शायद ही किसी नवयुवक से उतना प्रेम करती है । वह उसे प्यार करती थी, इसलिए उन्हें नवयुवक की तरह सजाती-संवारती थी । वह रोज उसके बालों में खिजाब लगाकर बालों को रंगीन बनाती थी । रामसदय अगर कभी मखमल की धोती बांध लेते तो वह उसे खोलकर उसकी जगह कोकिलपाढ़, फीतापाढ़ कल्कापाढ़ की धोती पहनाती-और मलमल वाली धोती उसी समय किसी गरीब को दे देती । रामसदय को इत्र से नफरत थी, पर वह सोते में उनके शरीर पर मल देती । उनका ऐनक अक्सर वह तोड़ देती और उसमें से सोना निकालकर उसे दे देती जिसकी बेटी की शादी होने वाली होती । रामसदय की नींद में नाक बजती तो वह अपने पैरों में घुंघरू की पायजेब पहनकर घर को गुंजायमान कर देती ।
लवंगलता हमसे फूल मंगवाती थी । हमें चार आने के फूल के दो रुपये देती थी । मैं अंधी थी इस कारण । माला लेकर लवंग गाली देकर कहती, “हमें ऐसी गन्दी माला क्यों देती है।-“परन्तु कीमत देते वक्त पैसे के साथ भूलकर रुपया दे देती । रुपया वापस देती तो कहती, “यह रुपया मेरा नहीं है ।” दुबारा कहने पर गाली देकर भगा देती । दान की बात कहती तो मारने भागती । इस प्रकार रामसदय घर पर नहीं होते तो हमारे दिन बीतते । इसके बाद जो भी रहे व सहती-मेरी मां यही समझकर लवंग से ज्यादा कुछ न लेती थी । दिन व्यतीत होते गए । हम लोग इतने में ही सन्तुष्ट थे । हमसे खूब सारे फूल लवंग खरीदती और रामसदय को सजाती, सजाकर कहती, “देखो कामरूप ।” रामसदय कहते, “देखो अंजनीनन्दन’ उस बूढ़ी युवती का मन अद्भुत था । शीशे की भांति एक-दूसरे का हृदय देख सकते थे । उनमें प्रेम का उदाहरण कुछ इस तरह था-
रामसदय कहते-“ललित लवंगलता दरिशी?”
“हुक्म ठाकुर महाशय दासी हाजिर है ।”
“मैं अगर मर जाऊं तो?”
“मैं तुम्हारा धन खा जाऊं ।” लवंग मन-ही-मन कहती, मैं जहर खा जाऊं । रामसदय मन ही मन समझ जाते ।
“सुनो । जब लवंग इतने पैसे देती तो बड़े घर में फूल देना दु:ख कैसे हुआ?”
मां एक दिन बीमार हो गई । पिताजी अंत:पुर में नहीं जा पाए-फिर मेरे अलावा लवंगलता को फूल देने और कौन जाता? मैं उसके लिए फूल लेकर गई । मैं अंधी हूं फिर भी कलकत्ता का सारा रास्ता मेरे लिए जाना-पहचाना था । सारी जगह हाथ में छड़ी लेकर जा सकती हूं । कभी किसी वाहन के सामने नहीं आयी । कभी-कभी राह चलते लोगों से अवश्य टकरा जाती हूं । वह भी जानकर कोई अंधी जानकर सामने आ जाता और धक्का लगा जाता । धक्का लगने पर वे कहते-“अरे! देखती नहीं, अंधी है क्या? मैं मन-ही-मन सोचती-अंधे हम दोनों हैं ।”
लवंग के पास मैं फूल लेकर गई । लवंग बोली-“क्यों री अंधी! फूल लेकर फिर आ मरी है? मेरा शरीर जल उठता था अंधी नाम सुनकर । मैं उल्टा उत्तर देने वाली थी तभी किसी के पदचाप सुनाई पड़े । आने वाले ने पूछा, “कौन आया है? छोटी मां यह कौन है ।”
“छोटी मां!” शायद यह तो रामसदय के बेटे थे । बड़े बेटे की आवाज एक दिन सुनी थी-इतनी मीठी आवाज नहीं थी-यह छोटे बेटे थे ।
छोटी मां ने बड़े मीठे स्वर में उत्तर दिया-“यह अंधी फूल वाली है ।”
“फूलवाली! मैंने सोचा कोई और ही अच्छी औरत है ।”
लवंग बोली-“क्यों? क्या फूल वाली अच्छी महिला नहीं हो सकती?”
छोटे बाबू झेंप गए । कहा-“क्यों नहीं हो सकती । यह तो एकदम भद्र महिला-सी लगती है । अंधी क्यों बन गई?”
“जन्म से अंधी है ।”
“देखें ।”
छोटे बाबू को अपनी विद्या का गौरव है । उन्होंने सारी शिक्षा ली थी । धन उपार्जन के लिए ही नहीं चिकित्साशास्त्र भी पड़ा था । शचीन्द्र बाबू (छोटे बाबू) ने दरिद्रों को दवा मुफ्त देने के लिए चिकित्साशास्त्र पढ़ा था-लोगों में ऐसी बातें फैली हुईं थीं । देखें कहकर वे मुझसे बोले, “सीधी खड़ी हो जाओ ।”
“मैं हड़बड़ाकर खड़ी हुई ।”
छोटे बाबू ने कहा, “मेरी ओर देखो ।”
“देखूं क्या सिर?”
अंधी आंखों से मैंने उधर देखा । पर छोटे बाबू के मन मुताबिक नहीं हुआ । मेरी ठोड़ी पकड़कर उन्होंने चेहरा घुमाया ।
उस ठोड़ी स्पर्श से मेरी जान निकल गयी । सोचा डॉक्टरी के सिर में आग लगा दूं।
वह स्पर्श फूलों जैसा था। स्पर्श में जूही, चमेली, गुलाब, बेला आदि की अनेक सुगन्धों का अहसास हुआ-लगा जैसे मेरे आसपास फूल हैं, मेरे माथे पर फूल, पैरों में फूल-प्राणों में फूल और मन के भीतर फूल-राशि। हाय मरी। किस विधाता ने इस स्पर्श को बनाया था। मैं कह चुकी हूं-तुम अंधी के दुःख-सुख को नहीं समझ सकते। मैं तो मर गई उस नवीन सुकोमल, पुष्पगन्धमय, वीणा-ध्वनित स्पर्श पर। जो देख सकता है? वह कैसे समझ पाता है। मेरा सुख-दुःख मेरे पास ही रहे। मैं जब भी उस स्वर्गतुल्य स्पर्श की याद करती हूं-मन-वीणा बज उठती है-तुम इसे चपल कटाक्ष-दक्ष क्या समझोगी?”
छोटे बाबू बोले, “यह अंधापन दूर नहीं होगा।”
लवंग बोली, “दूर न हो। पर क्या रुपयों से अंधों की शादी नहीं हो सकती?”
“क्या? इसकी शादी हुई नहीं है।”
“नहीं। रुपये खर्च करने