51 Shresth Vyang Rachnayen
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Description

Shri Hari Joshi has written lot many satires. He has used lot of satres in his stories, essays and novels. His satires have been published in almost all the journals of the country. Hari Joshi has always used very simple and easy to understand language. He also uses English, Sanskrit and Urdu terminology to create strong statire. He has a strong grip on idioms. Interactivity is the other characteristic of his satires. The topics of satice are taken from the diverse fields of society and Politics. His novel 'Mahaguru' is one the education sector. 'Vardi' is on the Police and 'Topi Times' drags the Journalists. Even with a small aphorism of a satire, he writes the whole satire.Dr. Hari Joshi's 51 - Sharp satires are presented here for you.

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Informations

Publié par
Date de parution 06 novembre 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789390088355
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0132€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

51 श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ हरि जोशी
 

 
eISBN: 978-93-9008-835-5
© लेखकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
51 श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं हरि जोशी
लेखक : हरि जोशी
संपादक : डॉ० गिरिराजशरण अग्रवाल
अन्याय के विरुद्ध मुखर होना व्यंग्यकार के लिए आवश्यक है
एक साक्षात्कार डॉ० हरि जोशी से
श्री हरि जोशी ने पर्याप्त मात्रा में व्यंग्य लिखे हैं । उन्होंने कहानी, निबंध और उपन्यास तीनों विधाओं में व्यंग्य का भरपूर प्रयोग किया है । देश की लगभग सभी स्तरीय पत्रिकाओं में उनके व्यंग्य प्रकाशित हुए हैं ।
हरि जोशी ने प्रायः सादगीपूर्ण भाषा का प्रयोग किया है । व्यंग्य को पुष्ट करने में वे अँग्रेजी, संस्कृत और उर्दू शब्दावली का भी प्रयोग करते हैं । मुहावरों पर उनकी गहरी पकड़ है । संवादात्मकता उनके व्यंग्य की अन्यतम विशेषता है ।
व्यंग्य के विषय उन्होंने समाज व राजनीति के विविध क्षेत्रों से लिए हैं । उनका उपन्यास ‘महागुरु' शिक्षा जगत् पर है, ‘वर्दी पुलिस वालों पर है' तो ‘टोपी टाइम्स' पत्रकारों की खबर लेता है । व्यंग्य का एक छोटा-सा सूत्र भी उनसे पूरा व्यंग्य लिखवा लेता है । यहाँ प्रस्तुत हैं डॉ० हरि जोशी से बातचीत के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश ।
संप्रेषण के इतने माध्यमों में से आपने अभिव्यक्ति के लिए व्यंग्य को ही क्यों चुना?
अपने ग्रामीण या शहरी परिवेश में क्रिया या प्रतिक्रिया के रूप में जिसे मैंने सर्वाधिक निकट से देखा वह व्यंग्य ही था । दुनिया के अधिकांश जन वाक्-प्रहार से या सलाख-प्रहार से, सामनेवाले को धराशायी करते हुए अपने प्रगतिपथ पर निरंतर अग्रसर होते रहना चाहते हैं । जो मौन रहेगा, उसके साथ कौन रहेगा? अन्याय के विरुद्ध मुखर होना, जिसमें अहिंसक तरीके से वाक्-प्रहार भी आता है, व्यंग्य के अंतर्गत ही रखा जाएगा । दबा हुआ उपेक्षित मनुष्य, क्यों सत्तासीनों-शोषकों के लिए ठकुरसुहाती ही कहता रहे? व्यंग्य के दो शब्द भी गागर में सागर सिद्ध हो सकते हैं । व्यंग्य जितना संक्षिप्त होगा उतना ही सार्थक मार कर सकेगा । कभी-कभी चिंगारी में ज्वालामुखी ।
यह सत्य नहीं है कि मैंने अभिव्यक्ति के लिए मात्र व्यंग्य को ही चुना । वह तो भला हो सरकारों का, जिन्होंने निलंबन करके चेतावनी या मानहानि के नोटिस देकर अथवा बार-बार स्थानांतरण करके मुझे ख्याति देने की कोशिश की । अपने शासकीय सेवाकाल में कुछ सरकारों ने मुझे ‘खतरनाक कर्मचारी' घोषित कर रखा था जिसका परिणाम यह होता था कि अधिकांश मंत्री या मुख्यमंत्री मेरे विरुद्ध कोई-न-कोई कार्यवाही करके ही संतोष का अनुभव करते थे ।
पाठकों को आश्चर्य होगा कि लंदन स्थित अंतर्राष्ट्रीय पुस्तकालयों में तो मेरी बारह-चौदह पुस्तकें हैं । मध्यप्रदेश के शासकीय पुस्तकालयों में एक भी नहीं हैं । मध्यप्रदेश शासन की दृष्टि में मैं एक अवांछित व्यंग्यकार ही बना रहा, इस बात की मुझे प्रसन्नता है। पिटा भी और पीटा भी, पर चाटुकार कभी नहीं बना । मैंने शासन के जिम्मेदार भ्रष्ट कारिंदों को व्यंग्य की पहनियाँ मारीं, बदले में उन्होंने बढ़िया कागजी घोड़े दौड़ाए और मुझे पटकने, कुचलने की, तहस-नहस करने की भरपूर कोशिश की । कोशिशें असफल रहीं ।
आज हम हँसी के बाजार में खड़े हैं । यहाँ हँसी बिक रही है। व्यंग्य हाशिए पर खड़ा है । एक व्यंग्यकार होने के नाते आप कैसा अनुभव करते हैं?
आज के बाजार में उपभोक्ता वस्तुओं में हँसी शायद सर्वाधिक ग्राह्य हो? किंतु बाजार की आवश्यकताएँ बदलेगी, व्यंग्य तो दीर्घकालीन या कहें सार्वकालिक बना रहेगा । हास्य तो नदी की अल्पकालिक बाद अथवा जल का प्रक्षुब्ध प्रवाह या उत्तेजना का छोटा सा क्षण मात्र रहेगा; किंतु व्यंग्य दीर्घकाल तक मनुष्य के मस्तिष्क को आंदोलित करता रहेगा पूर्व में भी करता रहा है ।
अधिक मीठा खिलाएँगे तो व्यक्ति जल्दी मुँह फेर लेगा । तीखा, नमकीन, चटपटा स्वाद लंबे समय तक लिया जा सकता है । व्यंग्य हाशिए पर नहीं है । हाशिए से व्यंग्य के स्तरहीन होने का खतरा बना रहता है । हास्य में फूहड़ता की जबकि व्यंग्य में शालीन बने रहने की संभावनाएँ प्रचुर मात्रा में होती हैं । व्यंग्य में थोड़ी बहुत हास्य की चाशनी स्वीकार्य है । हास्य सतही तथा क्षणिक है, जबकि व्यंग्य गंभीर तथा दीर्घगामी ।
आप हास्य और व्यंग्य में किसे बेहतर मानते हैं?
हास्य के स्तर को भी नकारा तो नहीं जा सकता, किंतु हास्य के पीछे कोई तर्क नहीं होता । व्यंग्य में तर्क और दीर्घकाल के लिए चिंतन करने की क्षमता के तत्त्व होते हैं । हास्य बाढ़ की तरह आता है, बह जाता है, व्यंग्य समप्रवाह होता है, ठहरते-ठहरते आगे बढ़ता है । हास्य की फुहार गीली कर देगी, जल्दी सुखा भी देगी, व्यंग्य में तैरा या नहाया जा सकता है ।
हास्य व्यंग्य के लिए साधक होता है, अथवा बाधक, आपकी क्या धारणा है?
हास्य का थोड़ा पुट हो तो व्यंग्य के लिए साधक; अधिक हो तो व्यंग्य के लिए घातक या बाधक ।
आज बाज़ार की शक्तियां सामान्यजन की चेतना को न केवल कुंठित कर रही हैं, अपितु उसे संघर्ष से भी दूर ले जा रही हैं। ऐसी स्थिति में व्यंग्यकार के रूप में लोगों में चेतना जाग्रत करने के लिए आप क्या कर रहे हैं?
उन दिनों तो मुझे बहुत मानसिक कष्ट होता था, क्योंकि पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ आर्थिक परेशानियों से भी जूझता रहा; किंतु एक दिन हिंदी जगत् इस बात को स्वीकार करेगा कि समकालीन व्यंग्यकारों में सर्वाधिक सौभाग्यशाली मैं ही रहा हूँ । यदि तालाब में लहरें ही न उठीं तो फेंका हुआ पत्थर किस काम का?
जिस व्यंग्य-लेखक पर शासन की ‘विशिष्ट' कृपादृष्टि हो, क्या वह लेखक सौभाग्यशाली नहीं कहा जाएगा? हाँ, इस संदर्भ में अवश्य दुर्भाग्यशाली रहा कि तथाकथित सफल व्यंग्यकारों-लेखकों से कुछ भी सीख नहीं पाया । शासकीय व्यवस्था पर लिख भी लेना, उसी सरकार से सम्मान और पुरस्कार झटक लेना और शासकीय पुस्तकालयों में अपनी पुस्तकें भी बेच लेना, उस मामले में मैं मूर्ख, असफल और दुर्भाग्यशाली ही रहा । पता नहीं पाठकों की चेतना जाग्रत कर पाया या नहीं? देशभर के पुस्तकालयों में मेरी पुस्तकें हैं, इंग्लैंड, अमेरिका के पुस्तकालयों में हैं; किंतु मध्यप्रदेश के किसी शासकीय पुस्तकालय में नहीं । वामपंथी मैं हूँ नहीं, इसलिए न कभी लामपंथी रहा न दामपंथी या सलामपंथी ।
आप निरंतर लिख रहे हैं और पर्याप्त लिख रहे हैं, क्यों इससे व्यंग्य की गुणवत्ता प्रभावित नहीं होती?
महाश्वेता की सौ से आर्थिक कृतियाँ प्रकाशित हुईं । वि.स. खांडेकर ने भी ग्रंथों का शतक पूरा किया । रमेश मंत्री (मराठी) विमल मित्र (बंगला) सुनील गंगोपाध्याय, शरदचंद्र, बंकिमचंद्र आदि इतर भाषाओं के लेखक इतना विपुल, लेखन कर चुके हैं; किंतु ऐसा प्रश्न हिंदी में ही होता है । फिर यदि पैंतालिस वर्ष में मेरी अट्ठारह पुस्तकें आईं तो क्या कमाल हो गया? गर्मियों में मैं बिल्कुल नहीं लिखता । एक साल में नौ-दस महीने लिखता हूँ । फिर यदि दिन-भर में 700-800 शब्द लिख भी लिए तो क्या बड़ा काम हो गया? गुणवत्ता प्रभावित होती है या नहीं यह देखना पाठकों, संपादकों का काम है । मेरा प्रयत्न होता है अच्छा, और अच्छा लिखने का । नियत मात्रा से अधिक एक दिन में नहीं लिखता ।
व्यंग्य के नाम पर अख़बारों में रोज़ाना थोक के भाव कुछ-न-कुछ छप रहा है । व्यंग्य का स्तर गिराने में कॉलम-लेखन को भी एक कारण माना जाता है । आप इस बात से कितने सहमत हैं?
जो व्यक्ति व्यंग्य लिख रहा है, वह परिष्कृत तो होगा ही । डाका तो नहीं डाल रहा है, चेन नहीं (गले से) खींच रहा है । जितनी क्षमता है, उसे लिखने दीजिए । फिर जो स्वनामधन्य लेखक व्यंग्यकार सात सौ आठ सौ शब्दों की कालम रचना को निम्नस्तरीय मान रहे हैं, वही किसी अच्छी पत्रिका में उतने ही शब्दों का कॉलम पा जाते हैं, तो तो धन्य हो जाते हैं। तब स्तंभ-लेखन को बुरा नहीं मानते । तुम माँगो तो रिश्वत, मैं माँगू चंदा । हमारी तिकड़म श्रेष्ठ, तुम्हारा लेखक निकृष्ट । पाठक या संपादक स्तर तय करेंगे ।
युवा वर्ग तो वैसे ही चिकित्सा, इंजीनियरिंग या तकनीकी शिक्षा के पीछे भाग रहा है, उसे न हिंदी लिखना आता है, न वह चाहता है । फिर जो इक्का-दुक्का लेखन-कर्म में आना चाहते हैं, उन्हें आने क्यों नहीं दिया जाए? रचना को संपादक भी पढ़कर ही प्रकाशित करते हैं । कुछ पाठक साहित्य के नाम पर मात्र संपादकीय या व्यंग्य पढ़ते हैं, उन्हें पढ़ने दीजिए कॉलम । शरद जोशी, परसाई किट्टू, के०पी० सक्सेना या ऐसे कितने लेखक हैं, जिन्होंने व्यंग्य के स्तंभ को समृद्ध किया है ।
एक व्यंग्यकार का किसी विचारधारा से जुड़कर लिखना आप कितना उचित मानते हैं?
हिंदी साहित्य में जो कुछ भी सम्मान, पुरस्कार शाल आदि ओढ़ाकर शालवृक्ष-सा खड़ा करने की प्रथा थी, आज भी है । वह मात्र प्रतिबद्ध साहित्यकारों में विद्यमान है । प्रतिबंधों के द्वार-शिविर बनाकर प्रतिबद्धों के लिए सोवियत लैंड पुरस्कार आदि पचासों सम्मान उपलब्ध हैं। वे सत्ता पर काबिज होकर धीरे से अपने-अपनों को रेबड़ियाँ बाँटते रहते हैं । अतः सुधी साहित्यकार शायद अभी भी मार्क्सवादी जनवादी, प्रगतिशील घोषित हो जाने में ही अपनी प्रगति देखते हैं । एक-एक, दो-दो पुस्तकों के सहारे ही इनाम-इकराम पाने में सफल हो जाते हैं । अन्य विचारधाराओं में बहकर लेखक पिटता है। तिरस्कृत होता है, आत्मग्लानि की अनुभूति करता है । मैं तो वैसा न कर पाया, न भविष्य में कर पाऊंगा, किंतु जिन्हें साहित्य की सीढ़ियों पर तेजी से चढ़ना है, वे भले स्वयं को वामपंथी घोषित का दें ।
आपने प्रायः व्यवस्था तथा तंत्र के कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों को व्यंग्य का विषय बनाया है । आपको किस प्रकार के व्यंग्य लिखना अधिक सहज लगता है?
जब कोई अन्याय और भ्रष्टाचार की प्रमुख घटना सामने आती है, तो वह मुझे कचोटती, झकझोरती है, वहीं से व्यंग्य उपज जाता है । व्यंग्य का एक लघु सूत्र एक ही बैठक में मुझसे पूरा व्यंग्य लिखवा लेता है । हाँ, इस बात को लिखने में मुझे किंचित भई संकोच नहीं कि जितना भ्रष्टाचार राजनीति के क्षेत्र में पसरा पड़ा है, उससे कम गुटबंदी, आदान-प्रदान, पक्षपात साहित्य में नहीं है । अन्याय, अत्याचार, धोखाधड़ी, राजनीति के संरक्षण में विकसित हुई । अब ये जड़ें कला-क्षेत्र में भी घुसपैठ करने में सफल हो चुकी हैं । संपर्कसूत्र हैं, तिकड़म हैं, नमस्कार-चमत्कार है, तो कुछ-न-कुछ पा ही जाएगा । उच्चाधिकारियों के दोमुँहेपन, घनघोर स्वार्थ के परिणामस्वरूप कथनी और करनी में अंतर, शिक्षा-जगत् में अनैतिक कार्यकलाप आदि अनगिनत विषय हैं, जो मेरे व्यंग्य में सहजता ला देते हैं । किसी भी विचारधारा का प्रवक्ता नहीं बना । जहाँ विपदा देखी, वहीं प्रहार किया । बख़्शा किसी को नहीं ।
राजनीतिक मूल्यहीनता और नैतिकता का छद्म, व्यंग्य-लेखन की प्रेरणा बनता है, आपका क्या मत है?
इसलिए तो मेरा मत है, जो व्यंग्य लिख रहा है, उसे न रोकें; राजनीतिक मूल्यहीनता का वह कहीं छोटा तो कहीं बड़ा विरोध कर रहा है । सही व्यंग्यकार नैतिकता के छद्म और राजनीतिक मूल्यहीनता को पहला निशाना बनाएगा । स्वयं सुधरकर चलेगा ।
व्यंग्य के सर्वाधिक प्रखर विषय आपको कहाँ मिले हैं?
मेरा एक उपन्यास ‘महागुरु' शिक्षा-जगत् पर है । दूसरा उपन्यास ‘वर्दी' पुलिसवालों पर है । ‘टोपी टाइम्स' पत्रकारों पर है । चौथा उपन्यास ‘पगडंडियाँ' व्यंग्य कृति नहीं है । इंजीनियरों पर भी लिखा है । समाज में व्यंग्य के विषय फैले पड़े हैं, बस कोई उठानेवाला हो?
विषय भले ही प्रखर न मिले हों, किंतु जब मैं समाचारपत्रों में व्यंग्य लेकर मुखर हुआ तो सत्तासीनों में मुझे सूली के शिखर पर टाँगकर ही दम लिया । अभी तो दृष्टि खोज रही है, सर्वाधिक प्रखर विषयों को । देखिए क्या होता है । सेवानिवृत होकर ही सूली से उतर पाऊँगा ।
अपनी आजीविका के क्षेत्र में आपने किस प्रकार व्यंग्यात्मक स्थितियों को पाया और उन्होंने आपके लेखन को कहाँ तक प्रभावित किय

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