That Hardly Happens To Someone
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Description

Everyone loves in life, whether it is from a career, sports, music, family or any person. Rajiv's journey, starting from a small village, is colored in the cultural and social environment from the town to the metropolis. He went ahead with every step he took in life, but failure pushed him back two steps. No mathematics worked to solve the problems of his life. Such a story written about life and love on the canvas of reality which looks like everyone and is different. Perhaps that's why this story was titled That Hardly Happens to Someone. The author of this book, Rajesh Singh worked for four years in the Indian Air Force and eight years in the State Bank of India at various places in India. Apart from being a good flute player, he is also interested in cricket, singing, dancing, painting and other sports. Recently he did I.I. MA Completed a one-year residential executive program from. He lives in Ahmedabad (Gujarat) with his wife and daughter.

Informations

Publié par
Date de parution 06 novembre 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789352966295
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0168€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

दैट हार्डली हैपेन्स टू समवन!

 
eISBN: 978-93-5296-629-5
© लेखकाधीन
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि .
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली-110020
फोन: 011-40712100, 41611861
फैक्स: 011-41611866
ई-मेल: ebooks@dpb.in
वेबसाइट: www.diamondbook.in
संस्करण: 2018
दैट हार्डली हैपेन्स टू समवन!
लेखक : राजेश सिंह
आभार
मैं उस ईश्वर का आभारी हूँ, यदि वह सचमुच कहीं है, तो उसने मुझे जीवन के हर मोड़ पर रास्ता दिखाया है। उसी ने जीवन की कठिन डगर में, मेरे पास मददगार लोगों को भेजा। इसके साथ-साथ में उन सब सुंदर हृदयों व आत्माओं को भी धन्यवाद देना चाहूँगा, जिन्होंने मुझमें भरोसा दिखाया। मैं अकिंचन, उस परमपिता “परमात्मा’ को उसके आशीर्वाद के लिए हृदय से धन्यवाद देता हूँ।
मैं गुजरात वासियों को उनके मधुर स्वभाव के लिए आभार प्रकट करता हूँ।
मैं अपने प्रिय मित्र व शुभचिंतक राहुल सिंह (आई. ए. एस.) का धन्यवादी हूँ, उन्होंने मुझे बहुत स्नेह से मार्गदर्शन दिया; I.I.M.A. के मित्रों व सहपाठियों ने आलोचनात्मक विश्लेषण में सहायता दी और I.I.M.A. समुदाय ने भी पूरी तत्परता से अपनी फीडबैक दी।
डायमंड बुक्स का विशेष धन्यवाद, जिन्होंने मेरी योग्यता में अपना पूरा भरोसा जताया।
और सबसे अधिक धन्यवाद तो मैं अपनी पत्नी को देना चाहूँगा, जिसने मुझे समझा और इस लेखन प्रक्रिया के दौरान; मेरे उत्तरदायित्व भी वहन किए। मेरी प्यारी बिटिया अदिति को भी “पप्पा" के साथ बिताने वाले समय में कटौती करनी पड़ी। पूरे परिवार ने किसी न किसी रूप में; मुझमें अपना भरोसा जताकर, मेरा आत्मबल बनाए रखा।
प्रारम्भ
“हैलो!” एक खूबसूरत लड़की ने धीमी और मीठी आवाज़ में कहा।
लेकिन मुंबई-लखनऊ उड़ान में खिड़की के पास बैठे जिस यात्री से यह कहा गया था, उसने सुना ही नहीं। एक मोटी कॉपी में उसकी कलम तेजी से दौड़ रही थी।
लड़की ने ऊपर वाला केबिन खोला। उसने अपना पर्स अंदर रख कर, कंधे से लैपटॉप बैग उतारा। वह अंदर जगह बनाने लगी। उसने पहले से पड़े बैग को खिसका कर जगह बनाई। फिर उसे धकेल कर अपना बैग टिका दिया।
वह बीच वाली सीट पर बैठ गई।
उस यात्री को अभी तक उसके आने की खबर नहीं थी। लड़की ने उसे देखा। वह सीट से जुड़ी ट्रे पर झुका, लिखने में मग्न था।
पाँच मिनट और बीत गए। उसकी बाईं तरफ की सीट पर कोई नहीं आया। वह उस आदमी को देख रही थी। उसने पन्ने के आखिर में एक बड़ा क्रास बनाते समय पैन इतनी जोर से दबाया कि पन्ना ही फट जाए।
लड़की ने पन्ने पर नज़र मारी। एक बड़ा क्रास का निशान दिख रहा था। “अगर इसने इसके ऊपर खोपड़ी बनाई होती, तो यह खतरे का निशान होता” वह मन ही मन मुस्काई।
“खटा.... क....” यह पैन टूटने की आवाज़ थी। उस आदमी ने पैन इतनी ज़ोर से दबाया था कि उसकी कमर ही टूट गई थी। वह खिड़की से बाहर, रन-वे (Run-way)के आसपास फैले मैदान को घूर रहा था फिर उसने टूटे पैन को देखा, कॉपी बंद की और पेन, ट्रे के नीचे वाली पॉकेट में फेंक दिया।
“कैसा अजीब आदमी है। क्या मैं इस पागल बंदे के साथ सफर कर रही हूँ।” लड़की ने उस पात्र को देख मन ही मन सोचा।
उड़ान भरने की घोषणा हो चुकी थी। वह मशीनी तरीके से अपनी बेल्ट का आधा हिस्सा तलाशने के लिए बाईं तरफ मुड़ा।
“तुम? तुम कब आई?” उसने ऐसे पूछा, मानो कोई भूत देख लिया हो। वह काफी घबरा-सा गया।
“जी, मैं। मैं तभी आई जब तुम पेन को तोड़ने और पन्ने को फाड़ने में जुटे थे” लड़की ने कहा
उस आदमी ने लड़की की बातों की तरफ ज्यादा ध्यान न देते हुए अपनी सीट बेल्ट लगा ली।
“वैसे, मैं शालिनी हूँ; शालिनी सिंह”, उसने अपना सिर हल्का-सा झुकाते हुए कहा।
उस आदमी का लड़की के नाम से कोई लेना-देना नहीं था;
फिर भी उसने जाति पर ध्यान दिया।
उसने अपना सिर हिलाया, “मैं राजीव सिंह हूँ”, शायद अब भी थोड़ा शिष्टाचार उसमें बाकी था।
यदि कोई विदेश में हो तो भारतीय नाम चौंकाता है यदि देश के किसी हिस्से में अपने राज्य, जाति या सरनेम वाला मिल जाए, तो वह भी चौंकाता है।
वह फिर से, खिड़की से चिपक गया था। जहाज रनवे पर दौड़ने लगा था। वह रनवे से तेजी से दूर भागती वस्तुएँ देखता रहा और फिर खिड़की से नीचे ताकने लगा। धरती पर दिखने वाली हर वस्तु छोटी और छोटी होती जा रही थी।
“इतनी ऊँचाई से देखने पर तुम्हें डर नहीं लगता?” शालिनी ने पूछा।”
राजीव “न’ में सिर हिला कर, आगे देखने लगा।
“अजीब आदमी है” लड़की ने मन ही मन सोचा।
एक लंबी चुप्पी छाई रही।
“मैडम, आप क्या लेना चाहेंगी?” एयरहोस्टेस ने चुप्पी तोड़ी।
राजीव ने आवाज़ सुन कर ट्रे से नोटबुक खींच ली।
“आप भी लखनऊ जा रहे हैं?” शालिनी को पूछते ही अपनी गलती का एहसास हुआ, “मेरा मतलब था कि क्या आप भी लखनऊ से हैं?” यह मुंबई लखनऊ-मुंबई की उड़ान थी।
“नहीं” एक छोटा-सा जवाब आया।
“माफ करें, पर मैं बता दूँ कि मैं ज्यादा देर तक चुप नहीं बैठ सकती, कृपया मुझे बर्दाश्त करना” वह मुस्करा दी।
राजीव ने भी हल्की-सी मुस्कान दी पर उसका ज्यादा ध्यान अपने नाश्ते पर था।
नाश्ता करते ही उसने नोटबुक उठा ली, “माफ करें, मुझे इसे बैग में रखना है।”
उसने रास्ता दिया तो राजीव ने ओवर हेड केबिन खोला।
“क्या तुम लेखक हो?” उसने अगला सवाल दागा। उसे इस अजीब से दिखने वाले इंसान के लिए कौतूहल होने लगा था।
“नहीं, मैं कोई लेखक नहीं हूँ।” राजीव उसे देखते हुए बोला। उसके हाथ बैग की जिप तलाश रहे थे।
बैग में नोटबुक रखने के बाद वह सीट पर बैठ कर बोला‒
“धन्यवाद।”
“पर मैंने देखा कि तुमने कुछ लिखने के बाद उसके नीचे क्रॉस लगाया और पेन टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिया?”
“लेखक अपनी कलम से प्यार करते हैं। वे उसे यूँ नहीं फेंकते?” राजीव ने अपनी पिछली बात के समर्थन में कहा।
“क्या तुम मुंबई में रहते हो?”
“नहीं, मैं एच डी एफ सी. बैंक के हैड ऑफिस में इंटरव्यू देने आया था।” राजीव ने उसके अगले सवाल का अंदाज़ लगा कर पहले ही ज्यादा जवाब दे दिया।
“तो आजकल कहीं काम कर रहे होंगे?”
“कहीं नहीं, मैंने हाल ही में आई आई एम- अहमदाबाद से एक्ज़ीक्यूटिव कोर्स पूरा किया है।” राजीव न चाहने पर भी बातों के जाल में उलझता जा रहा था।
“वाह! मैंने भी तीन साल पहले, वहीं से एम. बी. ए. किया था।’ उसकी आवाज़ में उत्साह था, “देखिए हम तो एक ही कॉलेज के छात्र निकले। अब तुम्हारे जवाब इतने छोटे नहीं होने चाहिए।” उसने थोड़ा-सा हक जताते हुए कहा।
राजीव ने उसे हैरानी और अविश्वास से देखा “मुझे इससे बात ही नहीं करनी चाहिए थी। अब इस लड़की से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो
जाएगा!” राजीव बेचैनी महसूस कर रहा था। उसने सोचा कि हथियार डाल कर ही अगला घंटा आराम से गुजारा जा सकता है। इसके सिवा कोई चारा भी तो नहीं था।
राजीव ने उसे देखा। वह तकरीबन 24-25 की रही होगी, सफेद कुर्ती? नीली जींस, खुशनुमा व्यक्तित्व, मध्यम बाल, गोरी रंगत और तीखी आवाज़!
वह मुस्कुराया मानो उसकी सारी शर्तें मान गया हो।
“एक्सक्यूज़ मी, मैडम!” इस बार एयर होस्टेस बर्तन समेटने आई थी।
“अच्छा, अब किताब के बारे में बताओ! तुमने पेन तोड़ कर क्यों फेंका?” उसने सीट पर झुकते हुए पूछा।
“ये किताब उस पात्र के बारे में है जो एक साल पहले इस दुनिया से चल बसा। यह उस किताब का आखिरी पन्ना था इसलिए मैंने पेन तोड़ कर फेंक दिया। उसे और कुछ नहीं लिखना चाहिए, यही रिवाज़ है।”
“कौन, कैसा पात्र?”
“वो मैं था।”
“बड़ी हैरानी की बात है! क्या मैं बुक देख सकती हूँ?” शालिनी सीधी बैठ गई।
“नहीं, यह किसी दूसरे के लिए नहीं है। बहुत निजी मामला है। कृपया, इस बारे में बात मत करो। एक ही कॉलेज के होने के नाते भी ऐसा कोई नियम नहीं है।” राजीव ने मुस्कुरा कर आग्रह किया और फिर से खिड़की के बाहर नीचे झाँकने लगा। नीचे जमीन पर सिर्फ कुछ काले-सफेद धब्बे दिख रहे थे।
मंज़िल अभी भी काफी दूर थी। राजीव ने यूं ही घड़ी पर नज़र डाली।
“जैसा तुम चाहो!” शालिनी ने नाराज़गी से कहा। वह सोच रही थी कि कह दे “गो टू हैल।’ पर कह नहीं पाई। उसे कॉलेज और आई आई एम के दिन याद आ गए और जहाँ तक उसे याद था किसी ने भी कभी उससे ऐसा बर्ताव नहीं किया था।
“गलती मेरी है, मैं बहुत जल्दी हर किसी से दोस्ती कर लेना चाहती हूँ।”
तभी उसे कुछ याद आया और उसने पूछा “क्या प्रोफेसर रविचंद्रन अब भी आई आई एम ए में हैं?”
बात का रुख बदलने का बस यही एक तरीका हो सकता था। “हाँ? वहीं हैं, वे काफी अच्छे प्रोफेसर हैं” राजीव हल्का-सा उसकी ओर झुका।
“पर वो कक्षा में किसी का भी मज़ाक उड़ाने में बेजोड़ हैं।”
वह पुरानी यादों में खो गई।
“हाँ, कई बार तो वे हाई प्रोफाइल छात्रों को भी नहीं छोड़ते, पर सभी उन्हें और उनकी जिंदादिली को चाहते हैं।”
“पता है, एक बार मैं भी उनके मजाक का शिकार बन गई थी।’
उसकी प्यारी-सी मुस्कान के साथ ही दाएँ गाल पर हल्का-सा गड्ढा भी दिख रहा था। काफी बातें तो उसकी आँखें ही कह देती थी।
“कैसे?” राजीव ने कुर्सी में टिकते हुए कहा।
शालिनी ने सीधे हाथ से बाल सँवारे, “वे अक्सर लैक्चर देते समय पीरियड का वक्त भूल जाते थे और पीरियड काफी लंबा हो जाता। अक्सर उनका आखिरी पीरियड होता था। उन्हीं दिनों मैंने डांस क्लास में भी दाखिला ले रखा था। मैं पढ़ाई खत्म होते ही कैंपस की डांस क्लास में भाग जाती थी। हर रोज़ मैं क्लास के एक घंटे बाद पीछे लगी दीवार घड़ी में वक्त देखती। सभी सहपाठी जानते थे कि मैं क्यों बेचैन थी। एक दिन मैंने पीछे मुड़ कर वक्त नहीं देखा क्योंकि मेरी डांस क्लास खत्म हो चुकी थी। उस दिन प्रोफेसर ने आधा घंटा ज्यादा क्लास ले लिया। फिर वे बोले‒
“मिस शालिनी, जब तक आप पीछे मुड़ कर घड़ी नहीं देखेंगी, कक्षा खत्म नहीं होगी!” सभी ठहाका लगा कर हँस पड़े। वह भी खुल कर हँस दी।
राजीव भी हँसी नहीं रोक सका हालांकि उसकी हँसी शालिनी जैसी नहीं थी। राजीव ने हँसते हुए सिर झुका लिया पर उसका दिमाग अब भी कहीं और था।
हल्की-सी चुप्पी छा गई। राजीव सामान्य हो गया और कनखियों से शालिनी का चेहरा निहारने लगा ‘भगवान करे इस चेहरे की ये खुशी और जिंदादिली कायम रहे!’ उसने मन ही मन दुआ माँगी।
“मुझे उसके साथ बदतमीजी से पेश नहीं आना चाहिए था। अगर मेरा मूड खराब है तो क्या मुझे दूसरे का मूड खराब करने का भी हक है? पर उसे भी तो दूसरों की निजी जिंदगी में इतनी तांक-झांक नहीं करनी चाहिए, हर कोई अपने तरीके से जीता है।’
अचानक उसे लगा कि शालिनी को उसके घूरने का पता चल जाएगा, उसने मुँह दूसरी तरफ घुमा लिया।
“तो यह किताब लिखने का समय कब निकाला? आई आई एम में तो फुर्सत नहीं मिलती, थकान कितनी हो जाती है।” उसने अगले ही पल पूछा। दिमाग से किताब निकली नहीं थी। इंसान हमेशा वो चीज़ पाने की कोशिश करता है, जिसके लिए उसे मनाही की जाए।
मैंने दो महीने के, स्टूडेन्ट एक्सचेंज के यू.एस.ए. प्रवास के दौरान इसे लिखा। कुछ अध्याय रह गए थे, जो कोर्स खत्म होने के बाद पिछले सप्ताह से पूरे कर रहा था।’
“मैं यू.एस.ए. से ही आ रही हूँ। मैं वहाँ “केपीटल वन बैंक’ के लिए काम करती थी।’
“अच्छा! वापसी कब की हैं?” उसने औपचारिक और बेकार-सा सवाल पूछा।
“मैं वापिस नहीं जाऊँगी। मैं यहीं रहूँगी, मेरे परिवार की यही इच्छा है।”
“पर यू. एस. ए. भी तो कम लुभाने वाला नहीं है।”
“ठीक कहते हो, अच्छी जगह है पर वही तो सब कुछ नहीं होता।”
“हाँ; वहां कुछ बातें तो बड़ी अजीब है; जैसे चलते व गाड़ी चलाते समय दाईं तरफ रहो; फारनेहाइट में तापमान, मीलों में दूरी, गैलनों में दूध और ईंधन नापना।”
“सच! पहली बार तो मैं सुन कर हैरान रह गई। घोषणा हुई कि बाहर 70 डिग्री तापमान है। मैं हिल गई; क्या वे लोग उबल नहीं जाते होंगे?
दोनों इस बात पर मुसकुराए।
“तुम्हारी अहमदाबाद की वापसी कब है?”
“28 मार्च को मेरा कन्वोकेशन है। एक सप्ताह बाद, मम्मी-पापा के साथ वहाँ जाऊँगा।”
सीटबेल्ट बांधने की घोषणा हो गई थी। राजीव ने खिड़की से नीचे देखा। लखनऊ का एयरपोर्ट आ पहुँचा था। ज़मीन की वस्तुएँ बड़ी और बड़ी दिखने लगी थीं।
“तुम्हें ऊँचाई से डर क्यों नहीं लगता? मैं तो कभी खिड़की वाली सीट पर नहीं बैठती।”
“शायद, इसलिए कि मैंने चीज़ों को ज़िंदगी में काफी ऊँचाइयों से ग

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