Sikhen Jeevan Jeene Ki Kala
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Sikhen Jeevan Jeene Ki Kala , livre ebook

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Description

This life is an opportunity, there is a chance to get that one, so living this life is an art. The reason for peace of mind disappears or hidden inside, could be love, prayer, nature or shadow.Through all this the human mind turns inward, but all these are the shadow of that 'one', the ultimate 'one', God. That is why the seekers have said, 'Love is God, life is God, suffering is worship, nature is God, etc.'

Informations

Publié par
Date de parution 19 juin 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789352789696
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0156€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

सीखें जीवन जीने की कला

 
eISBN: 978-93-5278-969-6
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि .
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली-110020
फोन: 011-40712100, 41611861
फैक्स: 011-41611866
ई-मेल: ebooks@dpb.in
वेबसाइट: www.diamondbook.in
संस्करण: 2018
सीखें जीवन जीने की कला
लेखक : शशिकांत ‘सदैव’
यह पुस्तक समर्पित है
हर उस इंसान को
जिसे जीवन जीने का अवसर तो मिला
लेकिन यह जीवन सौभाग्य नहीं लगा
शायद कहीं न कहीं
उसे यह नहीं पता है
कि उसे क्या मिला है
और जो उसे मिला है
उसमें क्या छिपा है।
जीवन जीना एक कला क्यों है?
सदियों से सुना है, पढ़ा है, कि ‘यह जीवन जीना एक कला है।’ आपने भी सुना होगा, पढ़ा होगा परंतु क्या कभी सोचा है कि जीवन जीने को बुद्धजीवियों ने एक कला क्यों कहा है? ऐसा क्या है इस जीवन में कि इसको जीना एक कला है?
कारण है इसका! इस जीवन में दुख हैं, तकलीफे हैं, पीड़ाएं हैं, परीक्षाएं हैं और वह भी एक नहीं हजारों, लाखों हैं पर हैरानी की बात तो यह है कि इन हजारों दुखों के, लाखों समस्याओं के हल लाखों नहीं है, हल सिर्फ एक है।
लेकिन वह ‘एक’ क्या है? कहां है? कैसा है? उस एक को समझ लेना, जान लेना और साध लेना ही कला है। और यही कला जीवन जीने की कला है। स्वयं को जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव में संतुलित बनाए रखना, हर स्थिति-परिस्थिति से न्यारा रखना।
वह ‘एक’ कुछ और नहीं ‘मन’ है। मन स्त्रोत है हर चीज का। मन केंद्र है हर विचार का। मन परिधि है हर हालात का। इस मन को समझ लेना, इससे मुक्त हो जाना ही आत्मबोध है, आत्मरूपांतरण है, मोक्ष है, निर्वाण है। जिसने मन को संभाल लिया समझो उसने सब कुछ को संभाल लिया।
शायद तभी कहा गया है ‘एक साधे सब सधे।‘ सारा खेल मन का है जो हमारे सुख-दुख, आत्मा-परमात्मा के बीच झूलता रहता है। भटकता रहता है और हमें भटकाता रहता है। इसके हटते ही समाधान मिल जाता है, समाधि लग जाती है और यह एक जो सर्वशक्तिशाली ‘एक’ है यानी परमात्मा, परम सुख, उस एक में समा जाता है।
भले ही यह मन दिखता नहीं है, पर सब कुछ दिखाता है। कहने को हम इंसान को काम इंद्रियों एवं ज्ञान इंद्रियों का मिश्रण कहते हैं परंतु कोई भी इंद्री बिना मन के काम नहीं करती। हर इंद्री के पीछे मन है। आंख खुली हों फिर भी संभव है कि हमें कुछ दिखाई न दे। हम शोर में बैठे हों कान खुले हों, फिर भी संभव है कि हमें कुछ सुनाई न दे। यदि मन उस इंद्री के साथ नहीं तो वह इंद्री निष्क्रिय है। मन जहां आसक्त होता है वह इंद्री स्वतः ही क्रियाशील व जागरुक हो जाती है।
यह मन बहुत चंचल है। इसके साथ सब कुछ संभव है। यह बाहर यानी संसार की ओर भी जा सकता है और अंदर यानी अंतर्रात्मा की ओर भी जा सकता है। जहां इसको आकर्षण लगेगा यह उस ओर मुड़ जाता है। मन को बाहर की ओर आकर्षित करने के लिए कई चीजें होती है, जैसे रुपए-पैसा, पद-प्रतिष्ठा, गाड़ी-बंगला, बच्चे-परिवार, देह-मनोरंजन आदि। लेकिन मन को भीतर की ओर मात्र ‘एक’ ही चीज आकर्षित कर सकती है। कोई एक सत्य या कारण ही उसे अंदर की ओर मोड़ सकता है। वह ‘एक’ ही सब कुछ है। वह ‘एक’ कारण ही निवारण है।
वह एक मिलता ही तब है जब बीच में मन न रह जाए, जब मन विदा हो जाए। सच तो यह है जब वह ‘एक’ मिलता है तब मन बचता ही नहीं। इसलिए सोचो कौन सी है वह चीज? कौन सी है वह स्थिति? जब मन भीतर की ओर आकर्षित होता है और वहां मन जैसा कुछ नहीं बचता? उस ‘एक’ को ढूंढ लेना और उस ‘एक’ में समा जाना ही एक कला है। और यह कला इस जीवन के माध्यम से ही संभव है।
यह जीवन एक अवसर है, मौका है, उस एक को पा लेना का, इसलिए यह जीवन जीना एक कला है। मन के लुप्त होने का या भीतर जाने का कारण, प्रेम भी हो सकता और प्रार्थना भी, प्रकृति भी हो सकती है, पीड़ा भी। इन सबके जरिए भी इंसान का मन अंदर की ओर रुख करता है, लेकिन यह सब परछाई हैं उस ‘एक’, परम ‘एक’, परमात्मा की। तभी तो साधकों ने कहा है ‘प्रेम ही है भगवान, जीवन ही है प्रभु, पीड़ा ही है पूजा, प्रकृति ही है परमात्मा आदि-आदि।‘
शब्दों में इस लेख के जरिए इसे मैंने तो क्या और कई लोगों ने भी समझाया है और समझाएंगे। लेकिन मात्र पढ़ लेने से जाना जा सकता है, अनुभव में नहीं लाया जा सकता। इसके लिए जीवन जीना पड़ेगा। स्वयं जीवन जीने की कला सीखनी होगी, तभी आपको पता चलेगा कि यह जीवन क्या है? इसको जीना एक कला क्यों है? और वह ‘एक’ क्या और कहां है जिसके मिलते है जीवन परम सुख, परम आनंद में परिवर्तित हो जाता है।
यह पुस्तक उस ‘एक’ की ओर इशारा भर है, जिसकी ओर रुख करके आप जीवन जीने की कला सीख सकते हैं और उस ‘एक’ को उपलब्ध हो सकते हैं।
विषय-सूची जीवन को समझने की कला 1. समझें इस जीवन को और खुद को 2. जीवन नज़रिए का खेल है 3. यह जीवन एक उत्सव है 4. यह जीवन एक यज्ञ है 5. जीवन यानी आज और अभी 6. सीखें जीवन जीने की कला व्यक्तित्व विकास की कला 7. सोच-समझकर, सोचें 8. क्या है आदत, क्यों पड़ती है और क्यों नहीं छुटती? 9. दुखों का कारण और निवारण 10. कैसे जगाएं आत्मविश्वास? 11. क्यों आता है गुस्सा? इसे कैसे रोकें? 12. क्या है सफलता, इसे कैसे पाएं? 13. तन को ही नहीं, मन को भी रखें दुरुस्त 14. ऐसे करें तनाव को कम आत्म-रूपांतरण की कला 15. ध्यान क्या है? इसे कैसे करें? 16. आध्यात्मिक होने की कला 17. हम भगवान को क्यों मानते हैं? 18. जीवन में ‘क्यों’ का महत्त्व 19. ‘क्यों’ है तो क्योंकि है 20. मृत्यु से भय क्यों? स्वयं को जानने की कला 21. भगवान का धाम है अक्षर 22. मन का दर है मंदिर 23. मन एक मंदिर है 24. कैसे पहचानें असली गुरु को? 25. आज के गुरु-शिष्य 26. व्रत रखने से पहले जरा सोचें? 27. आपका व्रत, व्रत है या उपवास? 28. तन का नहीं, मन का होता है व्रत 29. स्वयं में तीर्थ है इंसान 30. क्यों जरूरी है तीर्थ यात्रा 31. दान का अर्थ और महत्त्व संबंधों को जीने की कला 32. परिवार यानी प्रथम पाठशाला 33. कैसे करें बच्चों की परवरिश? 34. जब बच्चों से हो जाएं नादानी 35. सयानी उम्र और सेक्स ऐजुकेशन 36. कैसे बनाएं विवाह को सदाबहार 37. कुंडली मिलान नहीं, मैरिज काउंसलिंग जरूरी है 38. आपका प्यार, प्यार है या कुछ और? 39. समझें घर के बुजुर्गों को 40. मनुष्य होना भाग्य है, तो मां होना सौभाग्य 41. सफर को बनाएं यादगार 42. ट्रिप से पहले की कुछ टिप्स व्यावहारिक होने की कला 43.कॅरियर चुनने से पहले 44. नए ऑफिस में ध्यान रखें कुछ बातें 45. जब जाएं इंटरव्यू देने 46. जब मिलना हो बॉस से और करनी हो मीटिंग 47.सीखें बात करने का हुनर 48. आतंकवाद नहीं आत्मवाद 49. चिंता नहीं चिंतन करें
 
समझें इस जीवन को और खुद को
य ह पृथ्वी भी रहस्यपूर्ण है और इंसान भी। जितने रहस्य बाहर पृथ्वी के तल पर घटते हैं शायद उससे भी कई ज्यादा रहस्य इंसान के अंत:स्थल पर घटते हैं और जब यह दोनों मिलते हैं तो यह जीवन और भी रहस्यपूर्ण हो जाता है। कहां, किसमें, क्या और कितना छिपा है इस बात का अंदाजा तक नहीं लगाया जा सकता। जीवन के और खुद के रहस्य को समझना और आपस में दोनों तालमेल बिठाना ही जीवन जीने की कला है और इस रहस्य को जानने के लिए जरूरी है इस जीवन को जीना। इससे जुड़े सवालों का उत्तर खोजना, जैसे-यह जीवन क्यों मिला है? और जैसा मिला है, वैसा क्यों मिला है? जब मरना ही है तो जीवन का क्या लाभ? जब सब कुछ छिन ही जाना है, साथ कुछ नहीं जाना तो फिर यह जीवन इतना कुछ देता ही क्यों है? जब सबसे बिछड़ना ही है तो हम इतनों से क्यों मिलते हैं, क्यों जुड़ते हैं संबंधों से? क्यों बसाते हैं अपना संसार?
इंसान सीधे-सीधे क्यों नहीं मर जाता, इतने उतार चढ़ाव इतने कष्ट क्यों? इंसान सरलता से सफल क्यों नहीं हो जाता, इतनी परीक्षाएं क्यों? कहते हैं सब कुछ पहले से ही तय है कि कौन क्या करेगा, कब करेगा, कितना और कैसा जिएगा? यह सब पहले से ही निर्धारित है। इंसान बस उसको भोगता है, उससे गुजरता है। जब सब कुछ पहले से ही तय है तो फिर कर्म और भाग्य क्यों? गीता कहती है ‘यहां हमारा कुछ नहीं, हम खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाएंगे।' यदि यह सत्य है तो इंसान के हाथ इतने भर क्यों जाते है? कहां से जुटा लेता आदमी इतना कुछ? यह सब सोचने जैसा है।
सुनकर, सोचकर लगता है कि यह ‘जीवन' कितना उलझा हुआ है, यह दो-दो बातें करता है। न हमें ठीक से जलने देता है न ही बुझने देता है। हमें बांटकर, कशमकश में छोड़ देता है। सोचने की बात यह है कि यह जीवन उलझा हुआ है या हम उलझे हुए हैं? उलझने हैं या पैदा करते हैं? कमी जीवन में है या इसमें? हमें जीवन समझ में नहीं आता या हम स्वयं को समझ नहीं पाते? यह जन्म जीवन को समझने के लिए मिला है या खुद को समझने के लिए? यह सवाल सोचने जैसे हैं।
कितने लोग हैं जो इस जीवन से खुश हैं? कितने लोग हैं जो स्वयं अपने आप से खुश हैं? किसी को अपने आप से शिकायत है तो किसी को जीवन से। सवाल उठता है कि आदमी को जीवन में आकर दुख मिलता है या फिर वह अपनी वजह से जीवन को दुखी बना लेता है? यदि जीवन में दुख होता तो सबके लिए होता, और हमेशा होता। मगर यही जीवन किसी को सुख भी देता है। जीवन सुख-दुख देता है या फिर आदमी सुख-दुख बना लेता है? यह दोहरा खेल जीवन खेलता है या आदमी? यह सब सोचने जैसा है।
देखा जाए तो जीवन यह खेल नहीं खेल सकता, क्योंकि जीवन कुछ नहीं देता। हां जीवन में, जीवन के पास सब कुछ है। वह देता कुछ नहीं है, उससे इंसान को लेना पड़ता है। यदि देने का या इस खेल का जिम्मा जीवन का होता तो या तो सभी सुखी होते या सभी दुखी होते या फिर जिस एक बात पर एक आदमी दुखी होता है सभी उसी से दुखी होते तथा सब एक ही बात से सुखी होते, मगर ऐसा नहीं होता। तो इसका अर्थ तो यह हुआ कि यह खेल आदमी खेलता है। आदमी जीवन को सुख-दुख में बांट देता है। यदि यह सही है तो इसका क्या मतलब लिया जाए, कि आदमी होना गलत है? यानी इस जीवन में आना, जन्म लेना गलत है? एक तौर पर यह निष्कर्ष ठीक भी है न आदमी जन्म लेगा, न जीवन से रू-ब-रू होगा न ही सुख-दुख भोगेगा। न होगा बांस न बजेगी बांसुरी।
मगर सच तो यह हम स्वयं को जन्म लेने से नहीं रोक सकते। जैसे मृत्यु आदमी के हाथ में नहीं है वैसे ही जन्म भी आदमी के हाथ में नहीं है। अब क्या करें? कैसे बचें इस जीवन के खेल से? क्या है हमारे हाथ में? एक बात तो तय है आदमी होने से नहीं बचा जा सकता, लेकिन उसको तो ढूंढ़ा जा सकता है जो आदमी में छिपा है और जिम्मेदार है इस खेल का। पर कौन है आदमी में इतना चालाक, चंचल, जो जीवन को दो भागों में बांटने में माहिर है? जो अच्छे भले जीवन को दुख, दर्द, तकलीफ, कष्ट, क्रोध, ईर्ष्या, बदला, भय आदि में बांट देता है?
शायद मन या फिर निश्चित ही मन। क्योंकि जहां मन है वहां कुछ भी या सब कुछ संभव है। संभावना की गुंजाइश है तो हमें जीवन को नहीं मन को समझना है क्योंकि यदि हमने मन को संभाल लिया तो समझो जीवन को संभाल लिया। सभी रास्ते मन के हैं, सभी परिणाम मन के हैं, वरना इस जन्म में, इस जीवन में रत्ती भर कोई कमी या खराबी नहीं। अपने अंदर की कमी को, मन की दोहरी चाल को समझ लेना और साध लेना ही एक कला है, एक मात्र उपाय है। इसलिए इस जीवन को कैसे जिएं कि इस जीवन में आना हमें बोझ या सिरदर्दी नहीं, बल्कि एक उपहार या पुरस्कार लगे। और वह भी इतना अच्छा कि किसी मोक्ष या निर्वाण की जरूरत न पड़े। जीवन जीना ही हमारे लिए मोक्ष हो, जीते जी हमें निर्वाण मिले मरने के बाद नहीं। ऐसे जीना या इस स्थिति एवं स्तर पर जीवन को जीना वास्तव में एक कला है और कोई भी कला बिना साधना के, तप के नहीं सधती। तभी तो अनुभवियों ने कहा यह जीवन एक साधना है। अन्य अर्थ में कह सकते हैं कि यह जीवन जीना एक कला है जिसके लिए जरूरी है इस जीवन को और खुद को समझना।
***

 
जीवन नजरिए का खेल है
जी वन और कुछ नहीं आधा गिलास पानी भर है। जी हां सुख-दुख से भरा यह जीवन हमारे नजरिए पर टिका है। गिलास एक ही है परंतु किसी के लिए आधा खाली है तो किसी के लिए आधा भरा हुआ है। ऐसे ही यह जीवन है किसी के लिए दुखों का अम्बार है तो किसी के लिए खुशियों का खजाना

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